सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 2)

सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 2)

भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव

भगवान शान्तिनाथ जी का 10वाँ पूर्वभव - सौधर्म स्वर्ग में श्रीप्रभदेव

भोगभूमि में उत्पन्न हुए उन श्रीषेण आदि चारों जीवों ने असंख्य वर्षों तक कल्पवृक्षों के वचनातीत सुख भोगे। वहाँ 10 प्रकार के कल्पवृक्ष वहाँ के पुण्यवान जीवों को उनकी इच्छानुसार (1) अमृत समान निर्दोष मादक पेय, (2) उत्तम वाद्य, (3) हार आदि दिव्य आभूषण, (4) सुगन्धित पुष्प मालाएँ, (5) रत्नमणि के दीपक, (6) दिव्य प्रकाश, (7) राजभवन व नृत्यशाला, (8) अमृत समान स्वादिष्ट भोजन, (9) सुवर्ण व रत्नों के बर्तन, (10) अति सुन्दर वस्त्र इत्यादि उत्तम भोग सामग्री देते हैं। ऐसी सुन्दर भोगभूमि में केवल इन्द्रिय विषयों की भोग सामग्री ही मिलती है, वे कल्पवृक्ष चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख या सम्यक्त्व नहीं दे सकते। ऐसा सुख तो केवल अपने चैतन्य की साधना से ही मिल सकता है।

वहाँ सभी जीव शान्त व भद्रपरिणामी होते हैं। भोगभूमि में पुण्यप्रताप से उत्पन्न होने वाले सिंह आदि पशु भी मांसाहारी नहीं होते। वहाँ कीड़े-मकोड़े आदि तुच्छ जीव नहीं होते। कभी-कभी ऋद्धिधारी मुनिवर भी भोगभूमि में पधारते हैं और उनके उपदेश से अनेक जीव आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। पापी जीवों का वहाँ अभाव है। यहाँ के सभी जीव मरने के पश्चात् स्वर्ग में ही उत्पन्न होते हैं, अन्य किसी गति में नहीं जाते।

वहाँ कोई जीव दुराचारी नहीं होता, किसी जीव को इष्टवियोग नहीं होता। किसी जीव को निद्रा, आलस्य या मल-मूत्र नहीं होता, थूक या पसीना नहीं आता। सभी जीव मृदुभाषी, मन्दकषायी और वज्रशरीरी होते हैं। वे स्वयं अपने-अपने राजा हैं। जन्म के पश्चात् 6 सप्ताह में वे पूर्ण युवा हो जाते हैं। मृत्यु के समय भी उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती। अंतकाल में मात्र छींक या जम्हाई आने पर वे सुख पूर्वक प्राण छोड़ कर सौधर्म स्वर्ग में जाते हैं।

हे मुमुक्षु! अज्ञान से तू ऐसे पुण्यफल की या राग की इच्छा मत करना, क्योंकि वहाँ ऐसे भोगों में भी आत्मा का सुख नहीं है। ऐसा भोगसुख केवल संसार में परिभ्रमण ही कराता है। तू केवल आत्मस्वभाव के सुख को ही अनुभव में लेना, जो संसार से छुड़ा कर सिद्धपद की प्राप्ति कराता है।

श्रीषेण आदि चारों जीव असंख्य वर्षों तक कल्पवृक्षों के वचनातीत सुख भोगने के पश्चात् आयु पूर्ण होने पर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए। श्रीषेण राजा का जीव ‘श्रीप्रभदेव’ हुआ, रानी सिंहनन्दिता का जीव उसकी देवी ‘विद्युत्प्रभा’ हुई, अनिन्दिता रानी का जीव ‘विमलप्रभ देव’ हुआ, और ब्राह्मण कन्या सत्यभामा का जीव उसकी ‘शुक्लप्रभा देवी’ हुई।

स्वर्ग में वे चारों जीव जिनभक्ति करते, जिनेन्द्रदेव के पंचकल्याणक में जाते, समवशरण में जिनवाणी का श्रवण करते, मेरु-नन्दीश्वर आदि की यात्रा करते और साथ ही स्वर्ग के दैवी वैभव का भोग भी करते थे। वे अभी तक सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर पाए थे।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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