सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 5)
सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 5)
भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान शान्तिनाथ जी का 9वाँ पूर्वभव - भरतक्षेत्र में अमिततेज विद्याधर
अमिततेज और श्रीविजय की जिन दीक्षा
अमिततेज और श्रीविजय ने केवली प्रभु के उपदेश से अपूर्व सम्यग्दर्शन द्वारा चैतन्य निधान प्राप्त किए और देशव्रत अंगीकार करके अपनी-अपनी नगरी में लौट आए।
महाराजा अमिततेज के जीवन में एक महान् परिवर्तन हो गया था। विद्याधरों की दोनों श्रेणियों के स्वामी होने से वे विद्याधरों के ‘चक्रवर्ती’ थे। इतने महान् राजवैभव में रहते हुए भी वे अपनी आत्मसाधना को क्षण भर भी नहीं भूलते थे। महाराजा अमिततेज का जीवन देख कर इस प्रश्न का समाधान अनायास ही हो जाता है कि गृहस्थ दशा में भी आत्मज्ञान के बल से धर्म साधना चलती रहती है, क्योंकि ज्ञानी की चेतना राग व संयोग से अलिप्त रहती है।
एक बार महाराजा अमिततेज और श्रीविजय रमणीक तीर्थों की यात्रा पर निकले। वहाँ एक शांत उद्यान में अमरगुरु और देवगुरु मुनिराजों को देखा। उनकी वीतरागी आत्मतेज से प्रकाशित शांतमुद्रा को देख कर वे दोनों मुग्ध हो गए।
श्रीविजय ने उनसे अपने पिता त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्वभव पूछे।
मुनिराज ने कहा - हे भव्य! सुनो। तुम्हारे पिता वर्तमान चौबीसी में अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होंगे। पूर्वभव में यह जीव ऋषभदेव भगवान का पौत्र मारीचिकुमार था। परन्तु सम्यक् धर्म प्राप्त न होने के कारण इसने दीर्घकाल तक संसार में भटक कर नरक-निगोद आदि अनेक भवों की यातना सही। फिर विश्वनन्दि राजकुमार हुआ और निमित्त पाकर वैराग्य धारण करके मुनि हुआ। परन्तु भोगों के निदान से धर्मभ्रष्ट हुआ और अनुक्रम से त्रिपृष्ठ वासुदेव हुआ। वह तीन खण्ड की विभूति का भोक्ता था, पर धर्म को भूलकर विषयभोगों की तीव्र लालसा में जीवन गँवा कर नरक में गया है। आगे यह नरक से निकल कर अगले भवों में सिंह की पर्याय में धर्म प्राप्त करेगा और अनुक्रम से चक्रवर्ती होकर अंतिम भव में तीर्थंकर महावीर होगा।
राजा श्रीविजय अपने पिता की तीन खण्ड की विभूति का वर्णन सुन कर आश्चर्यचकित हो गया कि कैसे उसने हाथ में आए हुए धर्म को छोड़ कर विषयों के विष की वांछा करके निदान बंध कर लिया।
भ्रमण से लौट कर अमिततेज और श्रीविजय ने अनेक वर्षों तक राजसुख भोगा। उनके पुण्ययोग से एक बार पुनः उन्हें दो मुनिराजों के दर्शन हुए। धर्मोपदेश के पश्चात् मुनिराज ने कहा - हे भद्र! अब तुम दोनों की आयु का एक मास शेष है, इसलिए धर्मसाधना में चित्त को लगाओ।
यह सुन कर दोनों वैराग्यभावना का चिंतवन करने लगे - यह शरीर व संसार-भोग अस्थिर और क्षणभंगुर हैं। उनमें कोई सुख नहीं है। केवल चैतन्यरूप ही स्थिर, अविनाशी सुख का धाम है।
ऐसे चिंतन द्वारा वैराग्य में वृद्धि करके वे संसार से विरक्त हुए। दोनों ने अपने-अपने पुत्रों को राज्य सौंप कर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर महान् पूजा की, दान दिया और इसके पश्चात् वहाँ के चन्दन वन में नन्दन मुनिराज के निकट जिनदीक्षा धारण कर ली। अन्त में प्रायोपगमन संन्यासपूर्वक शरीर का त्याग करके कहाँ उत्पन्न हुए, यह आगामी प्रकरण में देखेंगे।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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