सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 6)
सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 6)
भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान शान्तिनाथ जी का 8वाँ पूर्वभव - आनत स्वर्ग में
अमिततेज और श्रीविजय ने जिनदीक्षा धारण करके संन्यासपूर्वक शरीर छोड़ा और 13वें आनत स्वर्ग में देव पर्याय में उत्पन्न हुए। उनके नाम ‘रविचूल’ और ‘मणिचूल’ थे। उस देवविमान में 100 योजन लम्बा, 50 योजन चौड़ा और 75 योजन ऊँचा रत्नमय अकृत्रिम जिनमंदिर है। वहाँ जाकर दोनों देवों ने जिनबिम्ब की पूजा की। उस स्वर्गलोक में अनुपम वैभव व सुख सामग्री थी। दोनों देवों को अवधिज्ञान और अनेक लब्धियाँ प्राप्त थी। उन्होंने पुण्य के फल से वहाँ असंख्य वर्षों तक उत्तम दैवी सुख भोगे, पर वे नश्वर पुण्य वैभव उन्हें तृप्त नहीं कर सके। उससे उन्हें आकुलता ही मिलती थी। अंत में वे थककर मनुष्य लोक में आने की तैयारी करने लगे। उनके शेष बचे पुण्य भी उनके साथ मनुष्य लोक में आए। जानते हो कि वे मनुष्य लोक में कहाँ अवतरित हुए?
भगवान शान्तिनाथ जी का 7वाँ पूर्वभव - विदेहक्षेत्र में अपराजित बलभद्र और अनन्तवीर्य वासुदेव
जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में वत्सकावती देश है। वहाँ सदैव अनेक केवली भगवन्त और मुनिवर विचरण करते हैं। यहाँ के निवासी जैन धर्म के उपासक हैं और स्वर्ग के देव भी वहाँ धर्मश्रवण के लिए आते रहते हैं। उस देश की प्रभाकरी नगरी में महाराजा स्मितसागर राज्य करते थे। ‘रविचूल’ और ‘मणिचूल’ देव आनत स्वर्ग से चयकर उस राजा के पुत्र हुए उनके नाम थे - अपराजित बलभद्र और अनन्तवीर्य वासुदेव। वे अपने साथ महान् पुण्य लेकर आए थे, इसलिए वे बलभद्र और वासुदेव कहलाए।
महाराजा स्मितसागर दोनों पुत्रों को राज्य सौंप कर संसार से विरक्त हुए और स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के निकट दीक्षा लेकर मुनि हो गए। एक बार उन्होंने धरणेन्द्र देव की विभूति देख कर उसका निदान कर लिया। इसलिए वे लक्ष्य से भटकने के कारण चारित्र से च्युत होकर मृत्यु के पश्चात् धरणेन्द्र हुए।
इधर प्रभाकरी नगरी में अपराजित और अनन्तवीर्य के राज्यवैभव में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी। उनकी राज्य सभा में बर्बरी और चिलाती नाम की दो विख्यात राजनर्तकियाँ थी। उन दिनों शिवमंदिर नाम की विद्याधर नगरी में राजा दमितारी राज्य करता था। वह ‘प्रतिवासुदेव’ था। उसने दोनों राजनर्तकियों की प्रशंसा सुनी। उसने बलदेव-वासुदेव को आदेश दिया कि वे दोनों राजनर्तकियाँ मुझे सौंप दो और मेरी आज्ञा में रहकर राज्य करो।
दोनों भाइयों ने एक युक्ति सोची। वे दोनों स्वयं ही राजनर्तकियों का रूप धारण करके दमितारी के राजमहल में गए और उसकी पुत्री ‘कनकश्री’ का अपहरण करके ले गए। कनकश्री के अपहरण की बात सुनते ही राजा दमितारी सेना लेकर उन दोनों के साथ युद्ध करने गया। जब वह किसी प्रकार भी जीत नहीं सका, तब उसने अपना दैवी चक्र अनन्तवीर्य पर उसे मारने के लिए फेंका। अनन्तवीर्य के अतिशय पुण्य के कारण वह चक्र उसके पास जाते ही शांत हो गया और उसका आज्ञाकारी बन गया। अनन्तवीर्य ने क्रोध में आकर उसी चक्र से दमितारी का शिरच्छेद कर दिया। वह मरकर नरक में गया। इसी दमितारी के पिता कीर्तिधर मुनि होकर, केवलज्ञान प्रगट करके अरिहंत रूप में विचरण कर रहे थे और उनका पुत्र नरकगामी हो गया। संसार की कितनी विचित्र लीला है!!
पुत्री कनकश्री ने अपने दादा केवली भगवान कीर्तिधर के समवशरण में आकर अपने पूर्वभव के बारे में जाना और संसार से विरक्त होकर आर्यिका हुई व समाधिमरण करके स्वर्ग में देवी की पर्याय में उत्पन्न हुई।
अपराजित और अनन्तवीर्य, दोनों भाई विदेहक्षेत्र में बलदेव-वासुदेव रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्हें तीन खण्ड की उत्तम विभूति प्राप्त हुई थी और अनेक दैवी विद्याएं भी उनको सिद्ध थी। यह सब जिनधर्म की सेवा-भक्ति का फल था। शास्त्रकार कहते हैं कि हे भव्य जीवों! तुम मोक्ष प्राप्ति के लिए जिनधर्म की उपासना करो। यह स्वर्गसुख प्रदान करते हुए अंत में मोक्ष फल प्रदान करने वाली है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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