सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 7)
सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 7)
भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान शान्तिनाथ जी का 7वाँ पूर्वभव - अपराजित बलभद्र की जिनदीक्षा
प्रभाकरी नगरी में अपराजित और अनन्तवीर्य सुखपूर्वक तीन खण्ड का राज्य कर रहे थे। एक बार अपराजित बलदेव की पुत्री सुमतिदेवी के विवाह की तैयारियाँ चल रही थी। अति भव्य विवाह मण्डप में सुमतिदेवी सुन्दर शृंगार करके सजधज कर आई। तभी आकाश से एक देवी उतरी और सुमति से कहने लगी - हे सखी! सुन! मैं तेरे हित की बात कहती हूँ। मैं स्वर्ग की देवी हूँ। तू भी पूर्वभव में स्वर्ग की देवी थी और हम दोनों सहेलियाँ थी। एक बार हम दोनों नन्दीश्वर जिनालय की पूजा करने गए थे। फिर हमने मेरु जिनालय की पूजा-वन्दना की। वहाँ एक ऋद्धिधारी मुनि के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उनसे धर्मोपदेश सुनकर हमने उनसे संसार से मुक्ति के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा - तुम चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करोगी।
देवी कहने लगी - हे सुमति! यह सुन कर हम दोनों अति प्रसन्न हुई थी और हम दोनों ने मुनिराज के समक्ष एक-दूसरे को यह वचन दिया था कि हम में से जो पहले मनुष्यलोक में जाएगा, उसे दूसरी देवी संबोध कर आत्महित की प्रेरणा देगी। इसलिए मैं स्वर्ग से उस वचन का पालन करने आई हूँ। तू इन विषयों में न पड़ कर संयम धारण कर और आत्महित कर।
विवाह मण्डप के बीच देवी की यह बात सुनकर बलदेव की वीर पुत्री सुमति को अपने पूर्वभव का स्मरण हुआ और वह वैराग्य को प्राप्त हुई। उसने अन्य 700 राजकन्याओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की और आर्यिका व्रत का पालन करके, स्त्री पर्याय को छोड़ कर वह सुमति का जीव 13वें स्वर्ग में देव हुआ।
अचानक विवाह-मण्डप में ही राजकुमारी को वैराग्य होने से सभी आश्चर्यचकित हो गए। इस घटना से बलदेव का चित्त भी उदास हो गया। उनकी भी संयम भावना जागृत हो गई, परन्तु अपने भ्राता अनन्तवीर्य के प्रति तीव्र स्नेह के कारण वे संयम धारण नहीं कर सके।
अनन्तवीर्य को पूर्वकाल के निदान बंध के मिथ्या संस्कार होने से बिल्कुल भी वैराग्य की भावना जागृत नहीं हुई। उसका जीवन दिन-रात विषय-भोगों में ही आसक्त रहा। तीव्र विषयासक्ति के कारण सदा आर्त्त-रौद्र ध्यान में वर्तता हुआ वह पंचपरमेष्ठी को भी भूल गया। अहो! जिस धर्मानुराग के कारण उसे ऐसे पुण्य भोगों की प्राप्ति हुई थी, उस जिनधर्म को भी वह भूल गया। पहले वह अपने भाई के साथ प्रभु के समवशरण में जाकर प्रभु की वाणी को सुनता था, पर अब उसका चित्त विषय-भोगों में ही रमा हुआ था। तीव्र आरम्भ-परिग्रह के कलुषित भावों के कारण वह अनन्तवीर्य रौद्रध्यानपूर्वक मरण करके नरक में गया।
नर्क के भयंकर दुःख देख कर उसे विचार आया कि मैं कौन हूँ? कहाँ आकर पड़ गया हूँ? मुझे इन क्रूर जीवों के द्वारा इतनी भयंकर पीड़ा क्यों दी जा रही है? वहाँ उसे कुअवधिज्ञान हुआ कि अरे! यह तो नरक भूमि है। दुर्लभ मनुष्य जन्म को विषयभोगों में गवाँ कर पापों के परिणामस्वरूप मैं नरक में आ पड़ा हूँ। मैंने भोगों की चाह में सम्यक्त्व रूपी अमृत को ढोल दिया है। उसी भूल के कारण मुझे वर्तमान में ऐसे भयंकर दुःख भोगने पड़ रहे हैं। अब मैं पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करूँगा, ताकि फिर कभी ऐसे घोर नरकों के दुःख न सहने पड़ें।
इस प्रकार वह भावी गणधर का जीव अपनी असंख्यात वर्षों की नरक आयु को बहुत कठिनाई से रो-रोकर व्यतीत करता रहा।
प्रभाकरी नगरी में अपने भ्राता अनन्तवीर्य वासुदेव की अचानक मृत्यु हो जाने से अपराजित बलभद्र को तीव्र आघात लगा। उसका मन यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था कि मेरे भाई की मृत्यु हो चुकी है। यद्यपि स्वात्म तत्त्व के सम्बन्ध में उनका ज्ञान जागृत था, पर वे भ्रातृस्नेह के कारण मृतक को जीवित मानने की परज्ञेय सम्बन्धी भूल कर बैठे। अपने भाई के मृत शरीर को कंधे पर उठा कर 6 महीने तक वे इधर-उधर घूमते रहे। सौभाग्य से उसी काल में अपराजित बलभद्र को यशोधर मुनिराज का समागम प्राप्त हुआ। उन्होंने चैतन्य तत्त्व का उपदेश देते हुए कहा - हे राजन्! तुम तो आत्मतत्त्व के ज्ञाता हो। अब इस बन्धु मोह को व इस शोक को छोड़ो और संयम धारण करके अपना कल्याण करो। 6 भव पश्चात् तुम तो भरतक्षेत्र के सोलहवें तीर्थंकर होंगे। ये मोहासक्तिपूर्ण चेष्टाएँ तुम्हें शोभा नहीं देती। इसलिए अपने चित्त को शांत करो और उपयोग को आत्मध्यान में लगाओ।
मुनिराज का उपदेश सुनते ही अपराजित बलभद्र को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उनकी चेतना जागृत हो गई और उन्हीं मुनिराज से दीक्षा लेकर अपना मन आत्मध्यान में लगाया और अंत समय में उत्तम ध्यानपूर्वक शरीर त्याग कर वे 16वें अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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