सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 8)
सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 8)
भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान शान्तिनाथ जी का छठा पूर्वभव - अच्युत स्वर्ग में इन्द्र
अनन्तवीर्य वासुदेव के अच्युत स्वर्ग में इन्द्र की पर्याय में अवतरित होते ही वहाँ मंगल वाद्य बजने लगे। देव-देवियाँ उन्हें वन्दन करके उनका आदर-सत्कार करने लगे। वे जानते थे कि यह विभूति मेरे पूर्वजन्म की आराधना का फल है, लेकिन इस वैभव का रजकण भी मेरी आत्मा का नहीं है। इस प्रकार निर्मोह रूप से उन्होंने स्वर्गलोक में विराजमान जिनप्रतिमा की भक्ति सहित पूजा की।
उन अच्युत इन्द्र को महान् अवधिज्ञान और विक्रिया आदि ऋद्धियाँ प्राप्त थी। वे तीर्थंकरों के पंचकल्याणक में जाते, इन्द्रसभा में सम्यग्दर्शन की चर्चा करते और उत्तम चारित्र की भावना भाते रहे। इस प्रकार सुखपूर्वक स्वर्ग की आयु व्यतीत करते रहे।
नरकगामी अनन्तवीर्य को सम्बोधन
अपराजित और अनन्तवीर्य के पिता स्मितसागर भी निदानबन्ध करके धरणेन्द्र की पर्याय में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अवधिज्ञान से जाना कि पूर्वभव का मेरा पुत्र अनन्तवीर्य मरकर नरक में गया है, इसलिए वे तुरन्त उसे प्रतिबोधन देने नरक में पहुँचे। धरणेन्द्र को देख कर नारकी जीव यह समझ गए कि यह प्रभावशाली देव हमें मारने नहीं, अपितु शांति प्रदान करने आए हैं। वे सब एक दूसरे से लड़ना-झगड़ना छोड़ कर धरणेन्द्र की बात सुनने को आतुर हुए।
धरणेन्द्र ने अनन्तवीर्य के जीव को सम्बोधन देते हुए कहा कि हे भव्य! इससे पूर्वभव में तू तीन खण्ड का स्वामी वासुदेव था और मैं तेरा पिता था। धर्म को भूल कर विषयभोगों की तीव्र लालसा के कारण तुझे यह नरक मिला है। अब फिर से अपनी आत्मा की सुरक्षा कर और अपने खोए हुए सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त कर। मैं धरणेन्द्र हूँ और तुझे सम्बोधने यहाँ आया हूँ।
धरणेन्द्र के वचन सुन कर उस नारकी जीव को बहुत शान्ति मिली। ऐसा लगा जैसे अमृत पीने को मिल गया हो। वह गद्गद् स्वर में बोला - हे तात्! आपने इस नरक में भी मुझे धर्मोपदेश रूपी अमृत का पान करा कर महान् उपकार किया है। मुझे ज्ञात हुआ है कि पूर्वभव में मैं तीन खण्ड का राजा था। अपराजित मेरे भाई थे, जो कई जन्मों से मेरे साथ थे। मेरे साथ के अनेक जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया और कइयों को देवगति मिली, पर मैं यहाँ नरक में पड़ा हूँ। पुण्यों का फल भोगने के लिए कितने ही जीव मेरे साथ थे, पर पाप का फल भोगने के लिए यहाँ मेरे साथ कोई नहीं है। मैं अकेला ही पाप का फल भोग रहा हूँ।
इस प्रकार अंतरस्वभाव की गहराई में जाकर एकत्व भावना भा कर उसने पुनः सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। अति उपकार मानते हुए उसने धरणेन्द्र को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। अपना प्रयोजन पूर्ण हुआ जानकर धरणेन्द्र भी अपने स्थान पर चले गए।
अंत में वह अनन्तवीर्य का जीव आयु पूर्ण करके सम्यक्त्व की आराधना करते हुए भरतक्षेत्र में विद्याधरों का स्वामी ‘मेघनाद’ हुआ।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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