बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 10)
बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 10)
श्री कृष्ण द्वारा कंस का अंत
मथुरा में श्री कृष्ण का जन्म होते ही उनके पिता वसुदेव और उनके ज्येष्ठ भ्राता बलभद्र (रोहिणी के पुत्र) उन्हें गुप्त रूप से गोकुल में नंद गोप के घर ले गए। मार्ग के अंधेरे में श्री कृष्ण के पुण्यप्रभाव से एक देव ने दीपक द्वारा मार्गदर्शन किया। नगर के द्वार अपने आप खुल गए और यमुना नदी का प्रवाह भी अपने आप थम गया। नदी ने दो भागों में विभाजित होकर उस पार जाने का मार्ग बना दिया।
जब वसुदेव और बलभद्र श्री कृष्ण को गोकुल ले जा रहे थे, तब नंद गोप एक मृत पुत्री को लेकर मार्ग में आते हुए मिले। बलभद्र ने बाल कृष्ण को उन्हें सौंप दिया और मृत पुत्री को लेकर ऐसा प्रचारित किया कि देवकी ने मृत पुत्री को जन्म दिया है। इस प्रकार राजा कंस को श्री कृष्ण के अवतार की ख़बर भी न हुई। नन्दगाँव में नन्दगोप की पत्नी यशोदा अत्यन्त स्नेहपूर्वक श्री कृष्ण का लालन-पालन करने लगी। ज्यों-ज्यों श्री कृष्ण बड़े हो रहे थे, त्यों-त्यों मथुरा में उपद्रव भी बढ़ रहे थे। इसी से अनुमान लगा कर ज्योतिषियों ने अनुमान लगा कर राजा कंस को कहा कि ‘आपका महान शत्रु कहीं उत्पन्न हो चुका है।’
यह सुनकर कंस चिंता में पड़ गया। उसने शत्रु को ढूंढने और उसे मारने के अनेक उपाय किए, पूर्वभव के मित्र छोटे देवों की भी सहायता ली, परन्तु श्री कृष्ण के पुण्ययोग से उन्हें कोई कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सका। इसके विपरीत उनका प्रभाव और भी बढ़ने लगा। अंत में एक मल्ल युद्ध में श्री कृष्ण ने अपने मामा कंस का संहार कर दिया। कंस के पिता राजा उग्रसेन व माता रानी पद्मावती को कारागृह से मुक्त करके उन्हें मथुरा का राज्य सौंप दिया। श्री कृष्ण और बलभद्र आदि सभी ने परिवार सहित आनन्दपूर्वक अपनी राजधानी शौरीपुर में प्रवेश किया। उनके आगमन से महाराजा समुद्रविजय भी अति हर्षित हुए।
इधर कंस की मृत्यु के पश्चात् उसकी रानी जीवयशा राजगृही में अपने पिता जरासंध के पास गई और कंस के मरण की बात बताई। यह सुनकर राजा जरासंध श्री कृष्ण आदि समस्त यादवों पर बहुत क्रोधित हुआ और उन्हें जीतने के लिए अपने पुत्रों को भेजा। सैंकड़ों बार युद्ध हुआ। अंत में महाराजा समुद्रविजय आदि यादवों ने विचार किया कि ‘राजा जरासंध बहुत बलवान है। वह यहाँ शांति से नहीं रहने देगा। श्री कृष्ण अभी बहुत छोटे हैं।’ ऐसा सोच कर उन्होंने शौरीपुर-मथुरा को छोड़ दिया और सौराष्ट्र देश में आकर समुद्रतट पर निवास करने लगे।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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