बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 13)
बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 13)
राजा जरासंध से युद्ध और श्री कृष्ण की विजय
अंधबुद्धि राजा जरासंध विशाल सेना एवं सुदर्शनचक्र सहित युद्ध के लिए द्वारिका नगरी की ओर चल पड़ा। यही तो कर्म की गति है। द्वारिका नगरी की ओर तीर्थंकर के जन्म का आनन्द मनाने की बजाय वह दुर्बुद्धि अपने सर्वनाश के मार्ग पर चल पड़ा।
नारद जी ने श्री कृष्ण को समाचार दिया कि राजा जरासंध लड़ने के लिए आ रहा है। शूरवीर श्री कृष्ण को यह समाचार पाकर किंचित भी भय या आकुलता नहीं हुई। वे नेमिकुमार के पास आए और विनयपूर्वक उनसे कहा - हे देव! राजा जरासंध युद्ध के लिए आ रहा है। आपके प्रताप से मैं उसे शीघ्र ही जीत लूंगा। मेरे लौट कर आने तक आप इस राज्य की सँभाल कर रक्षा करना। श्री कृष्ण की बात सुनकर नेमिकुमार मुस्कुराए। वे जानते थे कि इस युद्ध में श्री कृष्ण की ही विजय होगी।
राजा जरासंध राजगृही से निकल कर विशाल सेना सहित कुरुक्षेत्र आया और दूसरी ओर से श्री कृष्ण भी विशाल सेना सहित द्वारिका से चल कर कुरुक्षेत्र में आ पहुँचे। यही बात ध्यान देने योग्य है कि तीर्थंकर के आसपास की भूमि इतनी पावन होती है कि वहाँ युद्ध आदि महान हिंसा नहीं होती। इसीलिए शास्त्रकार रणभूमि को द्वारिका से सैंकड़ों मील दूर कुरुक्षेत्र में ले गए। कुरुक्षेत्र में महायुद्ध हुआ।
जरासंध की सेना श्री कृष्ण की सेना पर टूट पड़ी। यह देख कर श्री कृष्ण ने स्वयं जरासंध की सेना पर आक्रमण करके उसे पीछे खदेड़ दिया। तब जरासंध ने क्रोधित होकर कृष्ण को मारने के लिए सुदर्शनचक्र फेंका। महाप्रतापी श्री कृष्ण के पास आते ही उनके पुण्यप्रताप से वह चक्र शांत हो गया और श्री कृष्ण की तीन परिक्रमा लगा कर उनके हाथ में आ गया।
दूसरे ही क्षण उसी चक्र के द्वारा श्री कृष्ण ने जरासंध का शिरच्छेद कर दिया। इस प्रकार वासुदेव श्रीकृष्ण ने प्रतिवासुदेव जरासंध का नाश किया और त्रिखण्डपति चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध हुए। देवों ने भी उनके पुण्य की प्रशंसा की। विजयी होकर श्रीकृष्ण ने द्वारिका नगरी में प्रवेश किया। देवों ने उनका द्वारिकाधीश के रूप में राज्याभिषेक किया। 16000 राजा उनकी आज्ञा में चलते थे।
श्री कृष्ण की राजसभा में प्रभु नेमिकुमार का बहुत सम्मान था। जब प्रभु नेमिकुमार राजसभा में पधारते थे, तब समस्त सभाजन खड़े होकर उनको आदरपूर्वक नमस्कार करते थे। महाराजा श्री कृष्ण आगे बढ़कर आदरपूर्वक उनका हाथ पकड़ कर अपने साथ सिंहासन पर बैठाते थे। एक ओर राजचक्री और दूसरी ओर धर्मचक्री से उनकी राजसभा की शोभा द्विगुणित हो गई थी।
एक बार राजसभा में अचानक चर्चा होने लगी कि इस सभा में सबसे अधिक बलवान कौन है? किसी ने भीम का नाम लिया और किसी ने अर्जुन का, किसी ने श्री कृष्ण का; पर बलभद्र ने हँसते हुए कहा कि सभाजनों! इस सभा में विराजमान भावी तीर्थंकर भगवान नेमिकुमार ही सबसे अधिक बलवान हैं। वे चाहें तो अपनी अंगुली से मेरुपर्वत को भी उठा सकते हैं।
श्री कृष्ण को अपने बल पर गौरव था। उन्हें यह बात सहन नहीं हुई। उन्होंने शक्तिपरीक्षण हेतु नेमिकुमार को मल्लयुद्ध का निमन्त्रण दिया। परन्तु नेमिकुमार ने यह कह कर वह निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया कि आप तो मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं। आपके साथ मल्लयुद्ध शोभा नहीं देता। अन्त में अन्य प्रकार से नेमि-कृष्ण के बल की परीक्षा हुई और नेमिकुमार के बल की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध हुई। उन्हें अपने शरीर-बल का मद नहीं था। वे तो राजयोगी थे और अल्पकाल में ही उन्हें योगीराज बनना था।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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