बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 14)
बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 14)
पिछले प्रकरण में हमने देखा कि राजसभा में नेमि-कृष्ण के बल की परीक्षा हुई और नेमिकुमार के बल की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध हुई।
इस घटना के पश्चात् श्री कृष्ण के मन में गहरी चिन्ता होने लगी कि कदाचित् नेमिकुमार मेरा राज्य ले लेंगे। वे नहीं जानते थे कि नेमिकुमार को ऐसे तुच्छ राज्य से मोह कहाँ था? उन्हें तो जन्म से ही तीनों लोकों का राज्य प्राप्त था। जन्म होते ही मेरु पर्वत पर अभिषेक करके स्वयं इन्द्र भी उनके चरणों का सेवक बन गया था। वे श्री कृष्ण के इस छोटे-से राज्य का क्या करेंगे? परन्तु तीव्र राज्यलिप्सा के कारण श्री कृष्ण को भय लगने लगा। वे कोई ऐसा उपाय विचारने लगे कि किसी तरह नेमिकुमार दीक्षा ले लें।
एक बार महाराजा श्री कृष्ण अपनी रानियों के साथ सरोवर के किनारे क्रीड़ा करने गए। उनके साथ नेमिकुमार भी थे। जलक्रीड़ा के बाद नेमिकुमार ने अपनी भाभी सत्यभामा से कहा - ‘भाभी! मेरा यह वस्त्र भी धो देना।’ सत्यभामा तुनक कर बोली - ‘कुँवरजी! तुम मुझे वस्त्र धोने का आदेश देने वाले कौन हो? मैं क्या तुम्हारी दासी हूँ? मेरे पति त्रिखण्डाधिपति चक्रवर्ती, नागशैया पर शयन करने वाले, दैवी शंख फूंकने वाले तथा सुदर्शनचक्र चलाने वाले महाराजा श्री कृष्ण हैं। क्या तुमने उनके जैसा एक भी पराक्रम किया है। वस्त्र धुलवाने हों तो तुम भी विवाह कर लो।’
सदा गम्भीर और शांत रहने वाले नेमिकुमार को भाभी के कटाक्षपूर्ण वचनों को सुन कर किंचित मान का भाव जागृत हो उठा। वे बिना कुछ बोले मंद मुस्कुराहट के साथ सीधे राजभण्डार में गए और वहाँ श्री कृष्ण की नागशैया पर चढ़कर क्रीड़ा करने लगे। (नागशैया नागों की नहीं अपितु देवों द्वारा निर्मित सुन्दर सेज होती है, जिस पर वासुदेव जैसे पुण्यवंत ही सो सकते हैं।) नेमिकुमार के पुण्य प्रताप से नागशैया के देवों ने उनका सम्मान किया और वे शांत रहे। फिर एक हाथ की अंगुली पर उन्होंने सुदर्शनचक्र घुमाया और दूसरे हाथ में दैवी शंख लेकर उसे नासिका द्वारा जोर से फूंक दिया।
उस शंखध्वनि से द्वारिका में चारों ओर हाहाकार मच गया। हाथी-घोड़े आदि भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। नगर में कोलाहल मच गया कि यह क्या हुआ? समुद्र में लहरें उछलने लगी। महाराजा श्री कृष्ण विचार में पड़ गए कि ‘अरे! मेरे सिवा दूसरा कौन शूरवीर है जो यह शंख फूँक रहा है?’
जब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह सब पराक्रम छोटे भ्राता नेमिकुमार का है, तब वे मन ही मन प्रसन्न हो उठे कि अब नेमिकुमार के मन में कुछ गर्व जागृत हुआ है, इसलिए अब वे विवाह के लिए अवश्य सम्मति देंगे। नेमिकुमार की आयु 1000 वर्ष थी। उसमें से अभी 300 वर्ष हुए थे, तथापि वे विवाह के लिए सम्मति नहीं दे रहे थे। श्री कृष्ण तुरन्त नेमिकुमार के पास गए और उन्हें सत्यभामा की ओर से समझा कर शांत किया कि आप तो मुझसे भी अधिक शूरवीर हैं। सत्यभामा ने आपको पहचाना नहीं। अतः उसके अपराध को क्षमा करो और प्रसन्न हो जाओ।
नेमिकुमार मंद-मंद मुस्कुराने लगे कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। वे श्री कृष्ण के साथ विनोद करते हुए राजमहल में चले गए। वहाँ जाकर वे आत्मध्यान में बैठ गए और चैतन्यतत्त्व में उपयोग लगाकर उसकी भावना भाने लगे। अहा! धर्मात्मा की ज्ञानचेतना की शूरवीरता भी अद्भुत है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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