बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 16)

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 16)

भगवान नेमिनाथ जी का वैराग्य

नेमिकुमार ने दूल्हा बन कर बारात के साथ राजुलमती को वरने के लिए द्वारिका नगरी से जूनागढ़ की ओर प्रस्थान किया। विभिन्न प्रकार के मंगल वाद्यों एवं शहनाई के मधुर स्वरों से सारा वातावरण गूँज रहा था। बारात की शोभा अद्भुत थी। जिसका संचालन श्री कृष्ण और बलभद्र जैसे महान् पुरुष कर रहे हों, जिसमें हज़ारों राजा-महाराजा बाराती बन कर चल रहे हों; रथ में नेमिकुमार जैसे भावी तीर्थंकर दूल्हा बने बैठे हों; ऐसी बारात की तो अनुपम शोभा होनी ही थी। दिव्य अलंकारों से तथा प्रसन्नकारी मुद्रा में सुशोभित नयनाभिराम प्रभु नेमिकुमार, राजुल के नेत्रों एवं चित्त को आकर्षित कर रहे थे।

आओ, हम भी उनकी बारात का आनन्द लेते हैं।

बारात अति प्रसन्नता व उल्लास से जूनागढ़ में पहुँच रही है। राजकुमारी राजुल अपनी सहेलियों के साथ विनोद करती हुई राजमहल के झरोखे से अपने हृदय सम्राट को एकटक निहार रही है।

इतने में अचानक खरगोश, हिरण आदि पशुओं का करुण क्रन्दन नेमिकुमार के कानों में पड़ा। एक बाड़े में बंद भूखे-प्यासे मासूम पशु नेमिकुमार की ओर देख कर चीत्कार कर रहे थे। मानो वे अपनी रक्षा के लिए पुकार कर रहे थे कि ‘प्रभु हमें बचाओ....बचाओ।’

उन पशुओं की करुण पुकार सुन कर नेमिकुमार चौंक उठे। उन्होंने रथ को वहीं रोक कर रथवान से पूछा - अरे! आनन्द के अवसर पर यह करुण क्रन्दन कैसा!!

बाड़े के रखवाले आए और हाथ जोड़ कर बोले - प्रभो! महाराज कृष्ण की आज्ञा से इनको यहाँ बंद किया गया है।

नेमिकुमार ने चौंकते हुए पूछा - क्या? महाराज कृष्ण की आज्ञा से इनको यहाँ बंद किया गया है? लेकिन किसलिए? ऐसी आज्ञा उन्होंने क्यों दी?

रखवालों ने कहा - हे देव! महाराज कृष्ण ने हमें आदेश दिया है कि नेमिकुमार पूछें तो कह देना कि आपकी बारात में आए हुए मांसाहारी राजाओं के लिए ये पशु यहाँ रखे गए हैं।

‘अरे! क्या मेरी बारात में मांसाहारी राजा? उनके भोजन के लिए ये बेसहारा मासूम निर्दोष पशु? नहीं!नहीं!! मेरी बारात में मांसाहारी राजा नहीं हो सकते .... और श्री कृष्ण तो जानते हैं कि मैं अहिंसा-व्रत का पालन करने वाला हूँ। मेरे सामने किसी प्रकार का मांसाहार नहीं हो सकता। अवश्य ही इसमें श्री कृष्ण का कोई मायाजाल है।’

उन अवधिज्ञानी नेमिकुमार ने तुरन्त श्री कृष्ण के मन की बात जान ली। उन्होंने इस भय के कारण मेरे हृदय में वैराग्य जागृत करने के लिए यह प्रपंचपूर्ण युक्ति बनाई है कि ‘मैं उनका राज्य छीन लूँगा।’ अरे! धिक्कार है इस संसार को और धिक्कार है ऐसी राज्य-लिप्सा को!! वाह श्री कृष्ण! धन्य है तुम्हें कि इस मायाचारी द्वारा तुमने मुझे वैराग्य का निमित्त प्राप्त कराया। इस राज्य का उपभोग तुम ही करो। मैं तो अपने मोक्ष-साम्राज्य की साधना करूँगा। बस! मुझे नहीं चाहिए कोई राज्य और नहीं बंधना है विवाह के बंधन में।

प्रभु ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उसी समय मतिज्ञान की निर्मलता में उन्हें पूर्वभवों का जातिस्मरण हुआ। उसमें अपने ‘चिन्तागति विद्याधर’, ‘सुप्रतिष्ठ राजा’ और ‘अहमिन्द्र’ के पूर्वभव स्पष्ट दृष्टिगोचर हुए। उनकी विशुद्धि बढ़ने लगी और उन्होंने यह निश्चय किया कि ‘यह असार संसार त्याग कर आज ही मैं जिनदीक्षा ग्रहण करूँगा और परमात्मपद की साधना करूँगा।’

उन्होंने उसी समय सारथी को आज्ञा दी - सारथी! रथ मोड़ो। मुझे न तो विवाह करना है और न इस नश्वर संसार में रहना है।

धन्य है भगवान का वैराग्य!!!

क्रमशः

।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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