बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 18)

बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 18)

राजुलमती का वैराग्य

प्रभु के साथ हज़ारों राजाओं ने भी मुनिदीक्षा ग्रहण की। वन के उस शांत वातावरण से आकर्षित होकर गिरिवन के वनराज भी वहाँ आकर शांति से बैठ गए और मुग्ध होकर उनकी शांत मुद्रा के दर्शन करने लगे।

एक ओर सहस्राम्र वन में नेमिप्रभु आत्मध्यान कर रहे हैं, दूसरी ओर राजमहल के झरोखे में खड़ी हुई राजकुमारी राजुल नेमि दूल्हाराजा को वैराग्य प्राप्त करते देख कर तथा रथ से उतर कर वन की ओर जाते देख कर मन में कहने लगी - हे प्रभो! यदि आपको विवाह नहीं करना था, तो फिर बारात लेकर यहाँ तक क्यों आए? आप दूल्हा क्यों बने? .... या फिर जैसे पशुओं को बन्धन से मुक्त किया है, वैसे ही मुझे भी संसार-बन्धन से छुड़ाने का यह एक नाटक था। क्या आप मुझे भी मोक्षपुरी की राह पर ले जाने के लिए यहाँ पधारे थे? आप धन्य हैं, प्रभो! आपकी लीला अपार है।

हे प्रभु! आप मुनि होकर वन में जाएंगे, तो मैं क्या रो-धो कर संसार में ही बैठी रहूँगी? मैं भी वीर-पुत्री हूँ। आपकी अर्द्धांगिनी कहला चुकी हूँ। मैं भी आपके ही मार्ग पर जाऊँगी, दूसरे मार्ग पर नहीं। आप मुनिराज होंगे, तो मैं आर्यिका बनूँगी। आप परमात्मा बनेंगे, तो मैं एक भवावतारी बनूँगी।

माता-पिता और परिवारजनों ने राजुल को बहुत समझाया कि बेटी! अभी तुम्हारा नेमिकुमार के साथ विवाह नहीं हुआ है, इसलिए अभी तुम कुमारी हो। बेटी! हम किसी अन्य अच्छे राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करेंगे।

परन्तु दृढ़प्रतिज्ञ राजुलमती ने उनकी बातें अनसुनी करके दृढ़तापूर्वक कहा - उनसे मेरे फेरे नहीं हुए तो क्या? मैं मन से नेमिकुमार को वरण कर चुकी हूँ। वे ही मेरे स्वामी हैं। अब मेरे हृदय में किसी ओर को स्थान नहीं मिल सकता। अब सांसारिक भोगों के स्थान पर मोक्ष की साधना में उनकी संगिनी बनूँगी और धर्म के पथ पर चल कर अपना आत्मकल्याण करूँगी। मेरे स्वामी मोक्ष का आनन्द लें और मैं संसार में भ्रमण करके दुःखी होती रहूँ, ऐसा नहीं हो सकता। मैं भी प्रभु के साथ मोक्ष की राह पर चलूँगी।

ऐसे दृढ़निश्चयपूर्वक सैंकड़ों राजकुमारियों सहित राजुलमती ने दीक्षा ग्रहण की और वह गिरनार की गिरिगुफ़ा में आत्मसाधना करने लगी।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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