बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 11)
बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी (भाग - 11)
द्वारिका नगरी की रचना और भगवान नेमिनाथ का अवतार
जब यादव सौराष्ट्र देश में आकर समुद्रतट पर निवास करने लगे, तब श्री कृष्ण और भावी तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के पुण्यप्रताप से कुबेर ने समुद्र के बीचों-बीच 12 योजन की अति सुन्दर द्वारामती नगरी की रचना की। जहाँ तीर्थंकर का अवतार होना है और जिस नगरी की रचना देवों ने की हो, उस नगरी की शोभा का क्या कहना! महाराजा समुद्रविजय, वसुदेव, बलभद्र तथा श्री कृष्ण सहित समस्त यादवों ने उस नगरी में मंगल प्रवेश किया और सुखपूर्वक रहने लगे।
उस द्वारिका पुरी के बीचों-बीच रत्नजड़ित 1000 शिखरों से शोभायमान भव्य जिन मंदिर था। उसमें सर्व नगरजन अरिहंतदेव के दर्शन-पूजन एवं धर्मसाधन करते थे। वह नगरी इन्द्रपुरी के समान सुशोभित थी। इतने में एक आश्चर्यकारी घटना हुई।
राजमहल के प्रांगण में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होने लगी और स्वर्गलोक की कुमारिका देवियाँ आकर महारानी शिवादेवी की सेवा करने लगी। इन उत्तम चिह्नों से आपको ज्ञात हो गया होगा कि सौराष्ट्र देश में एक तीर्थंकर के आगमन की तैयारी होने लगी थी।
जब भगवान नेमिनाथ की ‘अहमिन्द्र’ की पर्याय में आयु 6 मास शेष थी, तब ये मांगलिक घटनाएँ घटित होनी प्रारम्भ हुई। महारानी शिवादेवी को जैन धर्म की प्रभावना करने और सर्व जीवों की दया पालने के उत्तम भाव जागृत हो रहे थे और विशुद्धि बढ़ती जा रही थी। 6 मास पश्चात् कार्तिक शुक्ला षष्ठी के मंगल दिवस की पिछली रात्रि में माता शिवादेवी ने 16 मंगल स्वप्न देखे। ठीक उसी समय स्वर्गलोक से बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ जी का जीव उनकी कुक्षि में अवतरित हुआ। धन्य हुई माता शिवादेवी और धन्य हुआ वह सौराष्ट्र!
अगले दिन राजसभा में स्वर्ग से इन्द्र-इन्द्राणी ने आकर तीर्थंकर के माता-पिता का सम्मान किया और गर्भ कल्याणक का मंगल महोत्सव मनाया।
इन्द्र की आज्ञा से भवनवासी देवियाँ माता की सेवा करती थी और विविध प्रकार की चर्चा करके उन्हें प्रसन्न रखती थी। सवा नौ मास आनन्दपूर्वक बीत गए। श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन द्वारिका पुरी में बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का जन्म हुआ। सारी नगरी आनन्दमय प्रकाश से जगमगा उठी। स्वर्ग लोक के बाजे अपने आप बजने लगे, इन्द्रों के आसन डोलने लगे।
इन्द्र तुरन्त प्रभु का जन्मोत्सव मनाने हेतु देवों सहित द्वारिका आ पहुँचे। समुद्र के बीच मानो नूतन इन्द्रलोक की रचना हो गई। इन्द्र ने बाल तीर्थंकर को ऐरावत हाथी पर बिठा कर सुमेरु पर्वत पर शोभायात्रा के रूप में ले जाकर 1008 कलशों से जन्माभिषेक किया। वहाँ करोड़ों दिव्य वाद्यों की मधुर ध्वनि गुंजायमान हो रही थी। प्रभु के दिव्य रूप को 1000 नेत्रों से निहारने पर भी इन्द्र को तृप्ति नहीं हो रही थी।
जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने 1008 नामों से बाल तीर्थंकर की स्तुति की और ये प्रभु धर्म रूपी रथ के चक्र की ‘नेमि’ अर्थात् धुरी के समान हैं, ऐसा समझ कर उनका नाम ‘नेमिनाथ’ रखा। इन्द्राणी ने बालप्रभु को दिव्य वस्त्रों से सजाया, तिलक किया और दिव्य अलंकारों से उनका शृंगार किया। इन्द्राणी उन्हें गोद में लेकर परम तृप्ति का अनुभव कर रही थी।
सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र बाल तीर्थंकर को शोभायात्रा के साथ द्वारिका पुरी लाए और पिता समुद्रविजय, माता शिवादेवी और बलदेव-श्रीकृष्ण के सम्मुख राजसभा में आनन्दमय नृत्य-नाटक करके भगवान् का जन्म कल्याणक मना कर स्वर्गलोक में लौट गए।
द्वारिका पुरी सहित तीनों लोकों में सर्वत्र आनन्द-मंगल छा गया। नारकी जीवों ने भी क्षणभर दुःख से छुटकारा पाकर शान्ति का अनुभव किया। तीर्थंकर का अवतार तो तीनों लोकों के लिए कल्याणकारी होता है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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