भगवान पार्श्वनाथ

भगवान पार्श्वनाथ

भगवान महावीर चौबीस तीर्थंकरों में से अंतिम तीर्थंकर थे। इनसे पहले 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी हुए हैं। उनका बाल जीवन सत्य धर्म का पाठ सिखाने के लिए अनुपम उदाहरण है।

तीर्थंकर उस मनुष्य को कहते हैं, जिसने इन्द्रियों और मन को जीत कर सर्वज्ञ पद पा लिया है। ज्ञान के द्वारा जो भटकते हुए जीवों को संसार रूपी महासागर से पार लगाने में सहायक हैं और तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले हैं। इस प्रकार सभी तीर्थंकर लोक का सच्चा उपकार करने वाले महान् शिक्षक थे। इनमें सबसे पहले ऋषभदेव हुए। उनके बाद लम्बे-लम्बे अंतरालों के बाद क्रमशः तेइस तीर्थंकर और हुए। उनमें से चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर थे।

श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ढाई सौ वर्ष पहले श्री पार्श्वनाथ जी निर्वाण पधारे। इनके पिता राजा विश्वसेन बनारस में राज्य करते थे। इनकी माता महिपाल नगर के राजा की पुत्री थी। उनका नाम वामादेवी था। राजकुमार पार्श्वनाथ बहुत पुण्यशाली जीव थे। वे बचपन में ही गहन ज्ञान की बातें करते थे। लोग उनके चातुर्य को देखकर दंग रह जाते थे।

एक दिन राजकुमार पार्श्वनाथ वन-विहार के लिए निकले। सखा-साथी उनके साथ थे। घूमते-फिरते वे एक पेड़ के पास से निकले। जहाँ एक संन्यासी पंचाग्नि तप कर रहा था। वे उनके नाना महिपाल ही थे। राजकुमार उनकी मूढ़ क्रिया को देखकर हँसे और अपने साथियों से बोले - देखो इस मूढ़ संन्यासी को! यह जीव-हत्या करके स्वर्ग के सुखों की अभिलाषा कर रहा है। जिस लक्कड़ को इसने सुलगा रखा है, उसमें नाग-नागिन हैं, यह भी इसको पता नहीं है।

संन्यासी इस बात को सुन कर आग बबूला हो गया और बोला - “हाँ! हाँ! तू बड़ा ज्ञानी है। छोटे मुँह बड़ी बात कहते हुए तुझे डर नहीं लगता? जिसे कह रहा है, वह तेरा नाना है और तिस पर संन्यासी! मेरी इस तपस्या को तू हत्या का काम बताता है।”

राजकुमार पार्श्वनाथ ने संन्यासी की इस बात का बुरा नहीं माना। उन्होंने उत्तर में कहा - साधु होकर क्रोध क्यों करते हो? बुद्धि दाम के मोल से नहीं बिकती है। ज्ञान बिना कोई भी करनी काम की नहीं। तुम्हें अपनी तपस्या का इतना घमण्ड है, तो ज़रा इस लक्कड़ को फाड़ कर देखो। दो निरपराध जीवों के प्राण व्यर्थ में ही जाएँगे। क्या यही धर्म-कर्म है?

संन्यासी बोला तो कुछ नहीं, पर लक्कड़ चीरने में जुट गया। उसने देखा कि सचमुच उस लक्कड़ के भीतर एक साँप का जोड़ा बैठा था। वह दंग रह गया, परन्तु फिर भी वह अपने बड़प्पन की डींग मारता ही रहा। वे युगल-नाग शस्त्र से घायल हो गए थे, परन्तु उनके परिणामों में भगवान पार्श्वनाथ के वचनों ने शान्ति उत्पन्न कर दी थी। वे समता भाव से मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती के रूप में पैदा हुए। एक बार अयोध्या से एक दूत राजा विश्वसेन की सभा में आया। पार्श्वनाथ ने अयोध्या का हाल पूछा तो उसने ऋषभ देव आदि तीर्थंकरों का चरित्र सुनाया। सुनते ही प्रभु को वैराग्य आया और बिना विवाह किए ही उन्होंने तीस वर्ष की अवस्था में जिनदीक्षा ले ली व घोर तप करने लगे।

एक बार पूर्वजन्म के वैरी संवर देव ने घोर उपद्रव किया, जल-वृष्टि की, ओले बरसाए, सर्प लिपटाए; परन्तु भगवान् सुमेरुपर्वतवत् ध्यान में स्थिर रहे। युगल नाग के जीवों धरणेन्द्र व पद्मावती ने सर्प के फण के रूप में छाया की और उन्हें अपने मस्तक पर उठा लिया। उनका उपसर्ग दूर हुआ और उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसके बाद विहार करते हुए भगवान ने सबको धर्मोपदेश दिया और अनेक जीवों का उपकार किया। सौ वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर पर्वत पर वे निर्वाण को प्राप्त हुए। इसे आजकल ‘पार्श्वनाथ हिल’ कहते हैं।

।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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