तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 10)

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 10)

भगवान पार्श्वनाथ जी के पूर्वभव

भील क्रूर सिंह के रूप में और इन्द्र का पार्श्वनाथ के रूप में भूमि पर अवतरण

कमठ का जीव नरक की यातना भोग कर वहाँ की आयु समाप्त करके उसी वन में क्रूर सिंह बन कर उत्पन्न हुआ। आनन्दमुनि ध्यान में मग्न थे लेकिन उन्हें देखते ही उस कमठ के जीव ने सिंह रूप में क्रोध से गर्जना की। उसकी भीषण गर्जना से सारा वन काँप उठा। वन के पशु-पक्षी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। वह ध्यानस्थ मुनि की ओर दौड़ा और छलांग मार कर उनका गला दबोच लिया।

मुनिराज किंचित मात्र भी भयभीत नहीं हुए। वे निर्भय रूप से अपने ध्यान में मग्न थे। सिंह पंजों से उनके शरीर को विदीर्ण करने लगा।

मुनिराज ने धर्म आराधना सहित प्राणों का उत्सर्ग किया और आनत स्वर्ग में इन्द्र हुए और वह सिंह क्रूर परिणामों से मर कर पुनः नरक में जा गिरा।

आनन्द मुनि स्वर्ग में और सिंह नरक में -

ऊर्ध्व लोक के 16 स्वर्गों में से 13वाँ स्वर्ग है आनत स्वर्ग! वहाँ अनेक कल्प-वृक्ष और चिंतामणि रत्न होते हैं, जिनसे माँगते ही सब इच्छित वस्तु मिल जाती है, परन्तु वीतराग धर्म ऐसा कल्प-वृक्ष है कि वह बिना इच्छा किए भी उत्तम फल प्रदान करता है। इसलिए यही धर्म श्रेष्ठ व हितकर है।

आनन्द मुनि वहाँ स्वर्ग में इन्द्र के रूप में भी जिन भक्ति का उत्सव करते रहे और देवों की सभा में उत्तम धर्मोपदेश देते रहे। उनके उपदेश से कितने ही देवों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। उनके शिवपुर (मोक्ष) पहुँचने में मात्र एक भव ही शेष था।

जब इन्द्र की आयु के 6 मास शेष थे, तब उनके वाराणसी में पार्श्वनाथ के रूप में अवतरित होने की तैयारी आरम्भ हुई। चलो! हम भी बनारस पहुँच कर देखते हैं कि वहाँ उनके जन्मोत्सव की कैसी तैयारी हो रही है!!

उस समय भरतक्षेत्र में चौथा काल पूर्ण होने को आया था। 22 तीर्थंकर मोक्ष पधार चुके थे। गिरनार पर्वत से भगवान नेमिनाथ को भी मोक्ष गमन किए हुए 83750 वर्ष बीत चुके थे। अयोध्या से कुछ ही कोस दूर बनारस नगरी अति समृद्ध एवं शोभायमान नगरी है।

वहाँ राजमहल में 15 मास तक रत्नवृष्टि होती रही। नगरवासी समझ गए कि यह वृष्टि किसी महामंगल अवसर का संकेत है। उस समय बनारस में राजा अश्वसेन राज्य करते थे। वे अति गम्भीर और सम्यग्दृष्टि थे। वे अवधिज्ञान के धारी तथा वीतराग देव-गुरु-शास्त्र के परम भक्त थे। उनकी महारानी वामा देवी अनेक गुणों से सम्पन्न थी।

एक बार महारानी पंचपरमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण करती हुई निद्रा में लीन थी। तब उन्होंने रात्रि के पिछले प्रहर में 16 मंगल स्वप्न देखे। उसी समय महारानी के गर्भ में भगवान पार्श्वनाथ के जीव का अवतरण हुआ। माता का हृदय आनन्द से भर गया। प्रभात होते ही महाराजा अश्वसेन के मुख से स्वप्नों का फल जानकर उनके हर्ष का पार न रहा, जब महाराज ने बताया कि उन्हें तीर्थंकर पुत्र की प्राप्ति होगी।

इन्द्रों और इन्द्राणियों ने प्रभु के माता-पिता का सम्मान किया और गर्भ कल्याणक-उत्सव मना कर उनकी पूजा-स्तुति की। छप्पन कुमारियाँ माता की सेवा करने लगी और धर्म चर्चा करके उनका मन बहलाने लगी। माता के हृदय में धर्म के अंकुर फूट चुके थे क्योंकि उनकी कुक्षि में भगवान पार्श्वनाथ का जीव अवतरित हुआ था।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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