तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 11)
तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 11)
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक
दिन पर दिन बीतते गए और पौष कृष्णा एकादशी के शुभ दिन राजा अश्वसेन के यहाँ महारानी वामा देवी के गर्भ से बालक पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। बनारस नगरी में चारों ओर आनन्द छा गया। तीनों लोक आनन्दित हो गए। स्वर्ग में भी अपने आप दिव्य वाद्य बजने लगे। इन्द्र ने जान लिया कि भरतक्षेत्र में 23वें तीर्थंकर का अवतार हुआ है। उसने तुरन्त इन्द्रासन से नीचे उतर कर बाल तीर्थंकर को नमस्कार किया और ऐरावत हाथी पर बैठ कर जन्मोत्सव मनाने बनारस आ पहुँचा।
छोटे-से भगवान को विशाल ऐरावत हाथी पर बैठाया और भगवान की शोभायात्रा मेरुपर्वत पर आ पहुँची। क्षीर सागर के जल से 1008 कलशों द्वारा भगवान का जन्माभिषेक किया और उन्होंने प्रभु का नाम पार्श्वकुमार रखा। आकाश से दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी। इन्द्राणी ने बाल तीर्थंकर को रत्नाभूषणों से अलंकृत किया और स्वर्ग से लाए हुए वस्त्राभूषण पहनाए और रत्न का तिलक लगाया।
प्रभु के जन्मोत्सव की शोभायात्रा बनारस नगरी को लौट आई और महारानी वामा देवी को उनका पुत्र सौंप कर इन्द्र-इन्द्राणी ने कहा - हे माता! आप धन्य हैं। आप जगत की माता हैं। आपने जगत को यह ज्ञानप्रकाशक दीपक प्रदान किया है। आपका पुत्र तीनों लोकों का नाथ है।
बनारस नगरी तीर्थंकर को पाकर धन्य हो गई। उनका जन्म होते ही जीवों में स्वयमेव धर्मवृद्धि होने लगी। जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही कमल खिलने लगते हैं, उसी प्रकार तीर्थंकर रूपी सूर्य के उदय होते ही भव्यजनों के हृदय रूपी कमल खिलने लगे। जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में देवों ने माता-पिता के समक्ष सुन्दर नाटक करके भगवान के पूर्व के नौ भव बताए। उनमें से हाथी के भव में मुनि के उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्ति का दृश्य देख कर अनेक जीवों ने प्रतिबोध प्राप्त किया।
इन्द्र-इन्द्राणी प्रभु के माता-पिता को उत्तमोत्तम वस्तुएं भेंट कर देवों सहित अपने स्वर्गलोक में चले गए। स्वर्ग के देव समय-समय पर बालकों का रूप धारण करके पार्श्वकुमार के साथ क्रीड़ा करने आते थे और उनके मुख से धर्मचर्चा सुनकर स्वयं को धन्य मानते थे।
भगवान को जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान एवं क्षायिक सम्यग्दर्शन था। उनका स्वभाव अति सौम्य था। आठ वर्ष की आयु होने पर वे पाँच अणुव्रतों का पालन करने लगे। आत्मविद्या को जानने वाले उन भगवान में अन्य सर्व विद्याएँ भी स्वयमेव आ गई थी।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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