तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 13)
तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 13)
घायल सर्प युगल
जब भगवान पार्श्वनाथ पूर्व जन्म में अग्निवेश मुनि थे, तब उनके भाई कमठ का जीव अजगर बन कर उन्हें निगल गया था और मर कर नरक में गया था। उसके बाद वह शिकारी भील बना तो उसने वज्रनाभि मुनि को बाण से छेद दिया। तत्पश्चात् वह सिंह होकर आनन्द मुनि को खा गया। वह मर कर पाँचवें नरक में गया और उसके बाद तीन सागर तक तिर्यंच पर्याय में भटकता रहा। अंत में वही जीव महिपाल नगरी में महिपाल नाम का राजा हुआ। भगवान पार्श्वनाथ की माता वामा देवी इसी महिपाल की पुत्री थी। इस प्रकार वह महिपाल भगवान पार्श्वनाथ का नाना था। महिपाल की रानी का स्वर्गवास होने के बाद वह दुःखी होकर तापसी बन गया था। उसके 700 तापस शिष्य थे। वह अज्ञानजन्य कुतप करता था। उस समय वह अपने 700 तापस शिष्यों के साथ बनारस नगरी में डेरा डाले हुए था और पंचाग्नि तप कर रहा था। उसके चारों ओर अग्नि में बड़े-बड़े लक्कड़ जल रहे थे।
इतने में पार्श्वकुमार अपने मित्रों के साथ वनविहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे। अपने नाना को कुतप करते हुए देख कर पार्श्वकुमार ने उन्हें वंदन-नमन नहीं किया। महिपाल तापस को यह देख कर पूर्व संस्कारवश क्रोध आ गया - अरे! मैं महान् तापस बाबा और इस राजकुमार का नाना हूँ, फिर भी इसने मुझे नमस्कार नहीं किया। इसे अपने राज्य का अभिमान है तो मैं भी तो अपना राज्य छोड़ कर तापसी बना हूँ। इस प्रकार वह मन ही मन क्रोध से अग्नि की तरह भड़क उठा।
शांत और गम्भीर पार्श्वकुमार ज्यों के त्यों शान्तिपूर्वक खड़े रहे। उनका चित्त अत्यन्त दयालु था। महिपाल का क्रोध बढ़ गया और वह कहने लगा कि मैं महान् तापसी और तुम्हारा नाना हूँ और तुम मुझे नमस्कार किए बिना अविवेकी की तरह खड़े हो!!
तब पार्श्वकुमार के मित्र सुभौम कुमार कहने लगे - हे तापसी बाबा! ‘मैं महान् तपस्वी हूँ’ - ऐसा मानकर आप भारी अभिमान कर रहे हैं। आपको मालूम नहीं कि मिथ्यात्व सहित किए गए कुतप से और हिंसा से जीव का कितना अहित होता है? आपके इस अज्ञानमय तप से छह काय के जीवों की हिंसा होती है। इसमें आत्मा का किंचित भी हित नहीं है।
मित्र सुभौम कुमार की बात सुनकर तो महिपाल को और भी क्रोध चढ़ने लगा। वह कहने लगा - तू मुझे उपदेश देने वाला कौन होता है? यह राजकुमार तो अभी बच्चा है। इसे मेरे तप का क्या पता? ऐसा कह कर जब वह एक बड़ा लक्कड़ फाड़ कर अग्नि में डालने लगा, इतने में......।
इतने में प्रभु पार्श्वकुमार ने कहा - ‘ठहरो!...ठहरो!....।’
उन्होंने अवधिज्ञान से जान लिया था कि इस लक्कड़ में एक सर्पों का जोड़ा बैठा है और वह कुल्हाड़ी से कट गया है। यदि इस लक्कड़ को अग्नि में डाला गया, तो वह भस्म हो जाएगा। इसलिए वे दयार्द्र होकर बोल उठे - ‘ठहरो!...ठहरो!....। इस लकड़ी को अग्नि में मत डालो।’
अज्ञानी तापस क्रोधित होकर बोला - ‘तू मुझे रोकने वाला कौन होता है?’
अब उसे क्या मालूम था कि इस लकड़ी में नाग-नागिन का जोड़ा बैठा है।
पार्श्वकुमार ने कहा - ‘आप जो लकड़ी काट कर अग्नि में होम करना चाहते हैं, उसमें नाग-नागिन का जोड़ा बैठा है, वह कट गया है और यदि इसे अग्नि में डाला गया तो वह जल जाएगा। ऐसी जीव हिंसा मत कीजिए।’
अवधिज्ञानी पार्श्वकुमार की बात पर उसे विश्वास नहीं हुआ। वह बोला - तू कौन-सा ऐसा त्रिकालदर्शी हो गया है, जो तुझे इस लकड़ी में बैठे सर्प दिख रहे हैं। क्यों व्यर्थ में होम में विघ्न डालता है?
तब सुभौमकुमार ने कहा - बाबा! यह भगवान पार्श्वकुमार अवधिज्ञानी हैं। इनका वचन कभी असत्य नहीं होता। आपको विश्वास न आता हो, तो लकड़ी चीर कर देख लो।
उस कमठ के जीव तापसी ने क्रोधपूर्वक लकड़ी को चीरा तो उसमें तड़पते हुए दो सर्प निकले। उनके शरीर के दो टुकड़े हो गए थे और वे वेदना से तड़प रहे थे। वे दोनों पार्श्व प्रभु की ओर टकटकी लगा कर देख रहे थे.... मानो दुःख से छुड़ाने की प्रार्थना कर रहे हों।
सभी लोग सर्प-युगल को देखकर चकित रह गए। महिपाल तापस भी क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गया।
प्रभु ने सर्प-युगल पर दृष्टि डाली, जिससे दोनों को अत्यन्त शान्ति का अनुभव हुआ। पार्श्व प्रभु धीर-गम्भीर स्वर में बोले - अरे! इन लोगों का अज्ञान तो देखो! जहाँ ऐसी जीव हिंसा को धर्म माना जाता है, वह तो अधर्म की कोटि में ही आता है।
तापस अभिमानपूर्वक बोला - ठीक है! ठीक है!! यह उपदेश कहीं और जाकर देना। तुझे क्या पता? मैं 700 तापसों का गुरु हूँ।
उसकी अविवेकपूर्ण बातें सुनकर सुभौमकुमार कहने लगे - अरे महाराज! हम न तो आपको गुरु मानते हैं और न ही आपका तिरस्कार करते हैं। आप सर्वज्ञ वीतराग देव का कहा गया अहिंसामार्ग छोड़ कर मिथ्यात्व एवं क्रोध आदि कषायवश होकर यज्ञ के नाम पर छह काय जीवों की हिंसा में प्रवर्तन कर रहे हैं और उस मिथ्यात्व के मार्ग से मोक्ष की कामना कर रहे हैं। यह तो मात्र भूसा पका कर चावल प्राप्त करने जैसा है। इसलिए हिंसामय अज्ञान मार्ग को छोड़ कर सच्चे ज्ञानमार्ग को ग्रहण करो। आपके प्रति हमारा बहुत स्नेह है। आप पूर्वभव में पार्श्वकुमार के भाई थे, इसलिए आपसे ये हित की बात कर रहे हैं। आशा है कि आप शान्तचित्त से विचार करके हित की बात को ग्रहण करेंगे।
भावी तीर्थंकर की उपस्थिति में ऐसा सुन्दर वीतराग धर्म का उपदेश सुनकर भी उस कुगुरु पापी कमठ के जीव ने सत्यधर्म स्वीकार नहीं किया। यदि जीव स्वयं भावशुद्धि न करे, तो तीर्थंकर भी उसका भला कैसे कर सकते हैं? यद्यपि उसे आभास तो हो रहा था कि मैं कोई भूल तो अवश्य कर रहा हूँ, पर क्रोध और अज्ञान के कारण वह सच्चे वीतराग धर्म को स्वीकार नहीं कर सका। अभी उसके पाप कर्म का अंत होने का समय नहीं आया था। अंत में तो वह इन्हीं भगवान की शरण में आकर सच्चा धर्म स्वीकार करेगा।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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