तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 14)

तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 14)

सर्प युगल का उद्धार

एक ओर घायल सर्प युगल तड़प रहे हैं और दूसरी ओर उनकी हिंसा करने वाला कुगुरु खड़ा है तथा उन्हीं के निकट उनका उद्धार करने वाले, जगत् को सन्मार्ग दिखाने वाले तीर्थंकर उनको वीतराग धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं। दोनों सर्प ऐसे दया की मूर्ति पार्श्वकुमार के दर्शन करके शांति का अनुभव कर रहे हैं और उनके मुख से वीतराग धर्म का उपदेश सुन कर स्वयं को धन्य समझ रहे हैं।

पार्श्वकुमार ने कहा - हे सर्पराज! भले ही इस अज्ञानी तापसी की कुल्हाड़ी से तुम्हारे शरीर कट गए हैं, परन्तु तुम क्रोध नहीं करना; क्योंकि पूर्वभव में क्रोध करने के कारण तुम्हें सर्प का भव मिला है। अब तुम क्रोधभाव त्याग कर क्षमाभाव धारण करो और पंचपरमेष्ठी भगवान की शरण लो। ऐसा कहकर पार्श्व प्रभु ने उन्हें धर्म श्रवण कराया।

दोनों नाग-नागिन अत्यन्त शांतिपूर्वक भावी तीर्थंकर के दर्शन करके और उनकी वाणी सुन कर अपना कष्ट भूल गए और उपकार बुद्धि से प्रभु का मुख देखते रहे। उन सर्प के मुख से विष के बदले अमृत झरने लगा - अहा! हम जैसे विषैले जीवों को भी प्रभु ने करुणापूर्वक सच्चा धर्म समझाया और हमारा कल्याण किया है। वे दोनों प्रभु चरणों में शरीर त्याग कर भवनवासी देवों में धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी हुए। वहाँ भी अवधिज्ञान से पार्श्व प्रभु का उपकार जानकर भक्ति करने लगे - धन्य है जिनधर्म!! धन्य हैं पार्श्व प्रभु्!! जिन्होंने हमें सर्प से देव बनाया और संसार से मुक्त होने का मार्ग दिखाया।

सर्प युगल तो अपने शत्रु को क्षमा करके देव हो गए और दुष्ट कमठ के जीव ने मनुष्य होकर भी क्रोध को नहीं छोड़ा, अपितु ‘इसने मेरा अपमान किया है’ - ऐसा मानकर अधिक क्रोध करने लगा। वह क्रोध के शल्यपूर्वक मरण करके कुतप के कारण निचली श्रेणी का ‘संवर’ नामक ज्योतिषी देव हुआ।

पार्श्वकुमार बनारस नगरी में वैराग्यपूर्ण जीवन जी रहे थे और सर्व जीव उनके दर्शन करके और उनसे धर्मश्रवण करके सुख प्राप्त कर रहे थे।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।

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