तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 17)
तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी (भाग - 17)
भगवान पार्श्वनाथ जी का समवशरण व मोक्ष कल्याणक
धरणेन्द्र व पद्मावती जिस उपसर्ग को दूर करने का प्रयत्न कर रहे थे, वह कार्य केवलज्ञान के प्रताप से स्वयं ही पूर्ण हो गया। प्रभु उपसर्ग विजेता होकर केवली बने और केवली को कभी उपसर्ग नहीं होता। भगवान के दिव्य समवशरण में जीवों के समूह भगवान की दिव्य वाणी सुनने के लिए आने लगे।
यह आश्चर्यजनक घटना देखकर संवरदेव का मन भी बदलने लगा। केवली प्रभु की महिमा देख कर उसके भावों में भी श्रद्धा जागृत हो गई। उसका क्रोध एकदम शान्त हो गया और वह पश्चाताप से बारम्बार प्रभु के सामने याचना करने लगा - हे देव! मुझे क्षमा करो। मैंने अकारण ही आपके ऊपर महान् उपसर्ग किया, पर आपने किंचित मात्र भी क्रोध नहीं किया। मुझे क्षमा करो। कहाँ आपकी धन्यता और कहाँ मेरी पामरता! आपने वीतरागता से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और परमात्मा बन गए। हे प्रभो! मेरा अपराध क्षमा करो। मैं जान गया हूँ कि क्रोध पर हमेशा क्षमा की ही विजय होती है। मैं क्षमाधर्म की महिमा को जान गया हूँ।
समवशरण में भगवान का उपदेश सुन कर उस कमठ के जीव को विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ और वह मोक्ष का साधक बन गया। धरणेन्द्र, पद्मावती, तापसी महिपाल और उस के साथ रहने वाले 700 कुलिंगी तापस भी मिथ्यामार्ग को छोड़ कर धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ गए और उन्होंने भगवान के चरणों में सम्यग्दर्शन सहित संयम धारण किया। अन्य भी बहुत से जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए।
समवशरण में विराजमान तीर्थंकर पार्श्वनाथ की शोभा आश्चर्यकारी थी। वे दिव्य सिंहासन पर विराजमान होते हुए भी उसका स्पर्श किए बिना उससे चार अंगुल ऊपर अंतरिक्ष में विराजमान थे। उनके सिर पर स्फटिक के तीन छत्र शोभायमान थे, पर प्रभु के अंतर में रत्नत्रय की अद्वितीय शोभा थी। देवों के दुंदुभि वाद्यों की अपेक्षा प्रभु की दिव्य ध्वनि विशेष रूप से मधुर व कल्याणकारी थी। वहाँ स्थापित कल्पवृक्ष तो बाह्य फल देने वाले थे, पर वे स्वयं मोक्ष रूपी फल को प्रदान करने वाले थे।
प्रभु की महिमा अवर्णनीय है और अनुभवगम्य है। प्रभु ने अपने उपदेश में बताया -
जगत में जानने योग्य तत्त्व हैं - जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा और मोक्ष।
इनमें से जीव संवर-निर्जरा और मोक्ष को ग्रहण करे तथा पुण्य-पाप, आस्रव-बंध को छोड़े। तभी वह शुद्ध भाव को ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
जीव को पाप से नरक, पुण्य से स्वर्ग और सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भगवान ने जिस मोक्षमार्ग से स्वयं मोक्ष को प्राप्त किया, वही वीतरागता का मार्ग जगत को बताया।
आपकी धर्मसभा में ‘स्वयंभूस्वामी’ आदि 10 गणधर उस दिव्य वाणी से ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। 1000 केवली, 750 मनःपर्यय ज्ञानी, 1400 अवधिज्ञानी, 350 श्रुतकेवली, 10000 उपाध्याय, 1000 ऋद्धिधारी मुनि और 600 वाद-विवाद विद्या में निपुण वादी मुनि थे। कुल 16000 मुनिवर वहाँ विराजमान होकर आपकी धर्मसभा को सुशोभित कर रहे थे। आपके श्रीमण्डप में सुलोचना नाम की प्रमुख आर्यिका सहित 36000 आर्यिकाएँ थी। एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ समवशरण में मोक्ष की साधना कर रहे थे। आपकी धर्मसभा में स्वर्ग के देव भी वीतरागता की प्रेरणा प्राप्त करते थे और क्रूर प्राणी भी हिंसक भाव छोड़ कर शांत हो कर धर्मश्रवण करते थे।
तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी ने 70 वर्ष तक देश-देशान्तर में विहार किया और आयु का एक मास शेष रह जाने पर सम्मेदशिखर पधारे। उनकी वाणी व विहार आदि थम गए। वे सबसे ऊँचे शिखर स्वर्णभद्र टोंक पर ध्यानस्थ मुद्रा में जाकर खड़े हो गए। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन तृतीय और चतुर्थ शुक्ल ध्यान पूर्ण करके वे अयोगी केवली ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष पधारे। इस तिथि को ‘मोक्ष सप्तमी’ भी कहते हैं।
वह पत्थर की टोंक पारस प्रभु के स्पर्श से स्वर्ण की हो गई, इसलिए उसका नाम सुवर्णभद्र टोंक पड़ा।
ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान की जय हो!!
।।ओऽम् श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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