बारात की रात

बारात की रात

जून का महीना था। चिलचिलाती धूप ने जन-जन को झुलसा रखा था। चारों तरफ कोलाहल, धंू-धूं करती गाड़ियों का धुआं प्रतिक्षण गतिमान था। कल-कारखानों का कोलाहल। कुल मिलाकर मानव चेतना का दम घुटा जा रहा था। महानगरों की यह सभ्यता, सुख-समृद्धि और भौतिक सुखों में प्रगतिशील जीवन सुशील को रास नहीं आया। कहां छतरपुर का शांत, शुद्ध, प्राकृतिक वातावरण और कहां यह भीड़, शोरगुल, कोलाहल युक्त कानपुर नगरी।

बारात की तैयारी चल रही थी। सभी बाराती अपना-अपना शृंगार करने में व्यस्त थे। सभी सज-धज कर सूट-बूट, टाई लगाकर तैयार। आजकल की बात और है कि यदि दूल्हा घोड़ी पर बैठे और सिर पर कलगी न लगाए, तो पहचानना मुश्किल है कि बारात का दूल्हा कौन-सा है, क्योंकि दूल्हे के सदृश्य ही न जाने कितने बाराती सूट-बूट, टाई में सजे रहते हैं। नाचते-गाते हुए बैंड-बाजों के साथ बाज़ार का रास्ता तय हुआ।

स्वागत-द्वार पर पहुंचा दूल्हा मन ही मन आनंदित था कि आज मेरे स्वागत के लिए सास-ससुर, साले, साली सभी आरती एवं मंगल कलश लिए खड़े हैं। वहां दूल्हे की आरती, टीका आदि की रस्म पूर्ण हुई। लोग भोजन के लिए एकत्रित हुए। भोजन का ढंग पूर्णरूपेण आधुनिक था। कुर्सी-टेबल लगी है, भोजन रखा है, प्लेट-चम्मच का ढेर लगा है। स्वयं उठाओ और खाओ। खाने के उपरांत दूल्हा अपने पिता एवं इष्ट मित्रों के साथ मंडप में पहुंचा। शादी का क्रम शुरू होता है। फेरे से पूर्व की रस्म होने जा रही थी। पंडित जी अपनी तैयारी में व्यस्त थे।

इधर दूल्हे के पिता और वधू के पिता आपस में कुछ महत्वपूर्ण चर्चा कर रहे थे। चर्चा कोई धार्मिक नहीं थी। बात लेन-देन पर रुकी थी। सुशील भी उस चर्चा को सुनने के लिए उनके समूह में शामिल हो गया। मधु का पिता गिड़गिड़ा रहा था, बार-बार समझा रहा था कि कुछ दिनों में पूरा इंतजाम कर दूंगा। अंत में पगड़ी उतार कर के पिता के चरणों में रख दी और कहा कि यह मेरी इज्जत है। पुत्री का विवाह हो जाने दो। मैं विनय कर रहा हूँ कि तुम्हारी पूर्ति कुछ दिनों में कर दूंगा, पर जिनके जीवन में पैसा ही सब कुछ हो, जिनको लड़की से नहीं पैसे से शादी करनी है, उन्हें यह सब गंवारा नहीं होता। बात तू-तू मैं-मैं तक आ गई।

अंत में बारात बिना दुल्हन के ही लौटने लगी। मधु के पिता को ग़श आ गया। बहुत ही मार्मिक दृश्य उपस्थित हो गया। एक तरफ मानवता बिलख रही थी, दूसरी तरफ दानवता हँस रही थी। वह दृश्य देखकर न जाने कितने हृदय वालों के हृदय धड़क उठे। हमारी सभ्यता के खोखलेपन की सीमा नहीं रही। पशुता सामने थी।

एक युवक से नहीं रहा गया। उसने आगे बढ़कर वधू के पिता को धीरज बंधाया और स्वयं उस लड़की से उसी मुहूर्त में शादी कर ली। सुशील एक मूकदर्शक की भांति सभी कुछ देख रहा था। विचारों में उत्तेजना बढ़ रही थी।

जहां के समाज में नारी को देवी-तुल्य माना जाता है, लक्ष्मी का दूसरा रूप कहा जाता है, नारी के बिना नर अधूरा कहा जाता है, वहीं आज कुछ स्वार्थी लोग समूची सभ्यता का ही गला घोटने पर तुले हुए हैं। हमारी संस्कृति के दामन पर इससे अधिक घिनौना दाग क्या हो सकता है? इन्हीं विचारों ने सुशील के हृदय को झकझोर डाला। विचारों की शृंखला बदल गई।

बारात की रात ने ही सुशील को वैराग्यमय बना दिया। उन्होंने एक और निर्णय किया कि बदल डालो समाज को। इस अनहोनी घटना ने उन्हें एक नया पथ दिखलाया और उनके अंतरंग में वैराग्य का दीप प्रज्वलित होने लगा। घर, घर के समान नहीं, जेल के समान प्रतीत होने लगा और अहर्निश यही विचार उठता कि कब इस बंधन से मुक्त हो जाए। इन विचारों के कारण सरस भोजन भी नीरस लगने लगा। विचारों की शृंखला ने अनेक भावों को संजोए हुए अनजानी राहों पर यात्रा प्रारंभ कर दी।

दिशा बोध के अभाव में कदम सही दिशा की ओर नहीं बढ़ रहे थे। मुख-मण्डल पर सदा उदासीनता की लहर छाई रहती। माता ने सुशील के मन में वैराग्य की ज्योति जलते देखकर अंतर प्रेरणा देकर उन्हें बरसा ग्राम में विराजित आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में छोड़ दिया। दिशाहीन को दिशा मिली। अंधे को दो आंखें मिली। डूबते को तिनके का सहारा मिला। भटकते को हाथ का इशारा मिला। सुशील गुरु चरणों में समर्पित होकर रहने लगे।

समय बीतता गया। ब्रह्मचारी से क्षुल्लक और क्षुल्लक से मात्र 14 दिन के अंतराल में ऐल्लक श्री शीलसागर बने। ऐल्लक अवस्था भी रास न आई और आत्मदर्शन की तीव्र अभिलाषा ने मुनि बनने को प्रेरित किया और वे चल पड़े खाली गागर को भरने विमल सागर के चरणों में। अद्भुत संयोग - भगवान पार्श्वनाथ का अतिशय क्षेत्र बालावैहट - वात्सल्य मूर्ति विमल सागर जी से जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। अब शील सागर बन गए मुनि पुष्पदंत सागर।

एक सप्ताह ही बीता होगा कि निमित्त ज्ञानी गुरुदेव के ज्ञान में कुछ झलका और वात्सल्य से अभिभूत होकर कह उठे - जाओ पुष्पदंत सागर! धर्म की प्रभावना करो। तुम्हारे द्वारा अनेक जीवों का कल्याण होने वाला है। पुष्पदंत सागर हतप्रभ से खड़े होकर कुछ न बोल सके और गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर चल पड़े धर्म प्रभावनार्थ।

सुविचार - चारित्र मानव जीवन का सर्वोत्तम आभूषण है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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