कुल्हाड़ी के आंसू
कुल्हाड़ी के आंसू
एक लकड़हारा जंगल में पेड़ काट रहा था। पेड़ काटते-काटते कुल्हाड़ी उछलकर एक पत्थर पर जा गिरी। पत्थर से आग की चिंगारी निकली। कुल्हाड़ी उसी पत्थर पर सिर रखकर फफक-फफक कर रोने लगी। उसके साथ लगे लकड़ी के डंडे से देखा नहीं गया। उसने रोने का कारण पूछा तो कुल्हाड़ी बोली - मुझे प्रतिदिन इन हरे-भरे वृक्षों को काटने से बहुत दुःख होता है। पर्यावरण को नुकसान पहुँचा कर हम कितने दिन जीवित रह पाएंगे।
तब साथ वाले डंडे ने उत्तर दिया - ठीक कहती हो तुम। अगर हमारे अंदर जाति-द्वेष न हो और हम एक-दूसरे के विनाश की कामना न करें तो किसी की क्या मज़ाल जो हमारा बाल भी बांका कर सके! यह तो हमारी ही आपसी फूट का परिणाम है कि मैं लकड़ी का डंडा ही तुम्हें उठाकर अपनी ही जाति के वृक्षों का विनाश करा रहा हूँ।
लकड़ी के डंडे ने कहा - आँसू तो मुझे आने चाहियें, पश्चाताप तो मुझे करना चाहिए। मैं अपनी ही जाति पर कुठाराघात कर रहा हूँ। क्या दुनिया मुझे नहीं धिक्कारेगी कि यह डंडा स्वयं ही अपनी जाति के विनाश का कारण बना? तुम्हें तो केवल हमारे द्वारा हरे-भरे वृक्षों का विनाश करना पड़ रहा है, इसलिए रोना आ रहा है और मैं तो अपने जाति-बंधुओं के वंश को ही नष्ट कर रहा हूँ, मुझे तो जीने का भी कोई हक नहीं है।
यह कहते-कहते वह डंडा पत्थर से निकली चिंगारी पर जाकर लेट गया और अपनी जाति की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी। पता नहीं, उसकी जाति के अन्य भाइयों को सबक मिला या नहीं, पर वह तो अपनी जाति की सुरक्षा के लिए शहीद होने वालों में अपना नाम लिखवा ही गया।
सुविचार - मानव अपनी मानवता को सुरक्षित रखेगा, तभी मानव जाति की सुरक्षा हो सकती है, वरना उसे हैवान और शैतान बनने से कोई नहीं रोक सकता।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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