रक्षाबंधन

रक्षाबंधन

‘राजन्! हम तो पहले ही कहते थे कि जैन साधु कुछ नहीं जानते। यह तो उनका सब ढोंग ही है’, बलि, नमुचि, प्रह्लाद और बृहस्पति मंत्रियों के श्री अकंपनाचार्य आदि 700 मुनियों के संघ के विषय में उपरोक्त जहर उगलने पर भी उज्जैन का राजा श्री वर्मा भक्ति व भाव सहित साधुओं को नमस्कार करके ही लौटा। बात यह थी कि आचार्य श्री को आभास हो गया था कि मंत्रियों से वार्ता करने पर संघ पर आपत्ति आ सकती है। अतः सबको मौन रहने का आदेश दे दिया था।

आदेश से अवगत न होने से श्रुतसागर मुनिराज, जो आहार चर्या से लौट रहे थे, मंत्रियों के बुरा-भला कहने पर उनसे वाद-विवाद कर बैठे। वाद-विवाद में मंत्री हार गए। इस घटना को श्रुतसागर जी ने आकर आचार्य श्री जी को बताया, जिसको सुनकर आचार्य श्री ने उन्हें वाद-विवाद स्थल पर जाकर ध्यानमग्न खड़े रहने को कहा। बदले का उपयुक्त अवसर जानकर चारों ने मिलकर एक साथ मुनिराज पर तलवार से वार करने के लिए हाथ उठाए। प्रातः लोगों ने देखा, तो सबने मंत्रियों को धिक्कारा। उनकी बहुत निंदा हुई। राजा उनको प्राण दंड दे ही रहे थे लेकिन दया के अवतार मुनिराज के कहने पर उनको केवल देश निकाला ही दिया।

बदले की भावना मन में संजोए वे मंत्री हस्तिनापुर पहुंचे और राजा पद्म के यहां मंत्री पद पर नौकरी करने लगे। राजा पद्म के पिता महापद्म व छोटे भाई विष्णु कुमार जैनेश्वर दीक्षा ग्रहण कर चुके थे।

आचार्य का संघ भी विहार करते-करते हस्तिनापुर पहुंचा। मंत्रियों को चिंता हुई कि अब क्या होगा? अब तो हमारी खैर नहीं। बलि ने पहले से धरोहर के रूप में रखा वर राजा से मांगा कि मुझे 7 दिन का राज्य दिया जाए। राजा पद्म विवश था क्योंकि एक बार शत्रु राजा सिंहबल को इन मंत्रियों ने पकड़ कर उसके सामने लाकर उसकी अधीनता स्वीकार कराई थी, जिससे प्रसन्न होकर उसने उनसे वर मांगने को कह दिया था। उसी वर को उन्होंने फिर कभी मांगने के लिए धरोहर के रूप में रख दिया था।

बलि को 7 दिन का राज्य मिल गया और मुनियों से बदला लेने का अवसर भी। जहां संघ के समस्त मुनिराज बैठे हुए थे, उसके चारों और बाड़ा बनवाया और उसमें आग लगा दी। श्रावण शुक्ला 14 का दिन था। एक पर्वत पर एक मुनिराज को तपस्या में लीन देख कर श्रवण नक्षत्र कांप रहा था। मुंह से आह निकली, तो पास में बैठे क्षुल्लक जी ने कारण पूछा।

उत्तर मिला कि हस्तिनापुर में 700 मुनियों के संघ पर घोर उपसर्ग हो रहा है और केवल विष्णु कुमार मुनि ही उपसर्ग दूर करने में समर्थ हैं जिन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है। क्षुल्लक जी विष्णु कुमार मुनि के पास पहुंचे और उन्हें सब समाचार कह सुनाया। मुनियों के प्रति अपूर्व वात्सल्य धारी मुनिराज ने वामन ब्राह्मण का रूप बनाया और राजा बलि के पास पहुंच कर अपने पद से नाप कर तीन पग पृथ्वी मांगी। राजा कुछ भी माँगने पर देने का संकल्प कर चुका था। विष्णु कुमार ने पर विक्रिया से पग बढ़ा लिया। एक पग रखा सुमेरु पर्वत पर, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर।

‘तीसरा पग कहां रखूं?’, यह सुनकर बलि घबरा गया और गिड़गिड़ाने लगा कि आप नाराज़ न होओ। यह कह कर उसने तीसरा पग अपने ऊपर रखने को कहा। जैसे ही विष्णु कुमार ने उसके ऊपर पैर रखा, वह चिल्लाया और क्षमा मांगी।

बलि को क्षमा करके विष्णु कुमार मुनि ने विंध्याचल से अग्नि को शांत किया और मुनियों का उपसर्ग दूर किया। वह था श्रावण शुक्ला पूर्णमासी का दिन। उपसर्ग दूर हो चुका था। सब मुनिराज आहारचर्या के लिए उठे। आग के धुँए से सब के गले रुँधे हुए होंगे, इसलिए श्रावकों ने सेंवई का आहार बनाया और नवधा भक्ति-पूर्वक सबको आहार दिया। कुछ श्रावकों के घर बच गए, जहां मुनिराज नहीं पधारे। उन्होंने अपने-अपने द्वार पर सोन (शुभ-संकेत) बनाए यानि मुनियों के चित्र बनाकर उन पर सेंवई लगाकर मुनियों को आहार देने का भाव बनाया और तभी से चल पड़ा रक्षाबंधन एवं रक्षाबंधन पर्व क्योंकि रक्षा जो हुई थी उस दिन मुनियों की उपसर्ग से।

आओ! हम भी इस अवसर पर संकल्प करें कि मुनियों की रक्षा में कोई कोर-कसर उठाकर नहीं रखेंगे। विष्णु कुमार ने तो मुनि रक्षा के लिए अपने मुनि पद को भी दांव पर लगा दिया था। उन्होंने पुनः मुनि दीक्षा धारण की और अपना कल्याण किया। ऐसा अनूठा दृष्टांत और कहीं नहीं मिलता। क्यों न हम भी इसी रूप में मुनियों की रक्षा का प्रण करके रक्षाबंधन पर्व मनाएं।

सुविचार - सांसारिक प्रतिष्ठा पाने हेतु किया जाने वाला धर्माचरण निंदा का कारण बनता है और आत्मा की उन्नति के लिए किया जाने वाला धर्माचरण प्रशंसा का कारण बनता है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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