रीतेपन का सुख

रीतेपन का सुख

एक दिन फल से लदे वृक्ष ने आदमी से कहा - तुम मेरी तरफ ललचाई नज़रों से क्यों देखते हो? मुझसे हमेशा प्राप्ति की इच्छा क्यों रखते हो? केवल लो ही नहीं, कुछ दो भी।

आदमी कुछ नहीं बोला। पेड़ ने कहा - मुझे देखो। मैं अपना सब कुछ दे कर अपने आपको बड़ा सुखी और हल्का महसूस करता हूँ। मेरी तरह तुम भी अपना सब कुछ दे दो, सब कुछ बांट दो।

आदमी फिर भी नहीं बोला। वृक्ष ने फिर कहा - मित्र! ललचाई नज़रें छोड़कर तुम इतना दो कि स्वयं रीते हो जाओ। इस से जाते वक्त तुम्हें खाली हाथ जाने की पीड़ा नहीं होगी। रीता होने में बहुत सुख है। इसके लिए अपने मोह को त्याग दो।

पेड़ की बात सुनकर आदमी की आंखें सजल हो उठी। वह कुछ नहीं बोल सका, पर उसके आंसुओं में चिंतन की एक मधुर गंध छिपी हुई थी।

आज उसे पता लगा कि एक वृक्ष अपना सब कुछ देकर भी इतना प्रसन्न कैसे रह लेता है! जितने फल वह देता है, उससे दुगुने उसकी डाली पर हर वर्ष फिर से आ जाते हैं। उसकी जड़ें ज़मीन में इतनी गहरी गड़ी हुई हैं कि वे उसे कभी खाली होने ही नहीं देती।

हम भी धर्म के माध्यम से अपनी पुण्य की जड़ें इतनी गहरी और मज़बूत बनाएं कि दान देने से हमें प्रसन्नता भी हो और अधिक दान देने की सामर्थ्य भी बनी रहे।

“जग का भला तो हमारा भी भला।”

सुविचार - अंतर्मन में कपट और लोभ है, तो हम किसी का भला नहीं कर सकते।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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