सज़ा क्यों?

सज़ा क्यों?

एक कैदी जेल की असहनीय यातनाएं भोग रहा है। बेचैन है, पीड़ा से संतप्त होकर तड़प रहा है। जेलर कभी निर्दयी होकर एक के बाद एक कोड़े कभी पीठ पर, कभी हाथ-पैरों पर बरसा रहा है। कभी-कभी शरीर पर ठंडा पानी डालकर पीट रहा है। उस समय की उसकी सीमातीत वेदना को दृष्टिगत करके लग रहा है, मानो बिना पानी के मछली तड़प रही हो।

वह कह रहा है - हे प्रभु! कब इस जेल से छुटकारा मिलेगा। कभी जेलर को गालियां देता है, तो कभी यह सोचने लगता है कि मैंने अपराध किया है, उसकी ही सज़ा भुगत रहा हूँ। कभी सोचता है - अरे! अकेले मैंने ही तो अपराध नहीं किया था। अपराधी तो मेरे बहुत से साथी भी थे। पूरा गिरोह था, परंतु सिर्फ़ मैं ही पकड़ा गया। सभी साथी वहाँ से भाग गए। यदि मैं भी भाग जाता तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। यहां से निकलने के बाद मैं कभी भी अपराध नहीं करूंगा। इस तरह कल्पना के ताने-बाने बुनते हुए उसने कुछ क्षण व्यतीत किए।

हंटर की चोटों से थोड़ी सी राहत मिली कि भोजन का समय हो गया। पहुंच गया भोजन के स्थान पर। बैठ गया टूटी-सी थाली लेकर। पर यह क्या? अनाज के साथ मानो 10-5 पत्थर ही पीस दिए हों! घास जैसी रोटियां और भूसे जैसी दाल। नहीं खाया गया उससे। सोचा, पानी पीकर तृषा शांत कर लूंगा। उठाया गिलास और लगा लिया मुंह से। पानी भी ऐसा लगा जैसे उसमें आधा कचरा भरा हो। नहीं पिया जा रहा था, परंतु ज्यों ही दृष्टि जेलर की तरफ़ गई, उसके हाथ का हंटर और उसकी क्रूर निगाहें देख कर सिहर गया वह। मैं यह भोजन पानी छोडूंगा तो इसका फल क्या मिलेगा, यह सोच कर कर लिया भोजन और पी लिया पानी।

पहुँच गया उसी कमरे में, जिसके भीतर वह कैद था। सोचा, थोड़ी नींद ले लूँ, किंतु बड़े-बड़े मच्छरों के कारण नींद कहाँ आने वाली थी? सैंकड़ों की संख्या में मच्छर एक साथ आक्रमण जैसा कर रहे थे। ऐसा अनुभव हो रहा था, मानो सारे बदन में सुइयाँ चुभ रही हों। आख़िर उठ गया और कुछ देर अपने साथी कैदियों के साथ मन बहलाने लगा। ये क्षण उसे सबसे सुखद प्रतीत हो रहे थे। कुछ क्षणों के लिए वह अपने सम्पूर्ण दुःखों का विस्मरण-सा कर बैठा।

क्या मैं अन्य कैदियों से बेहतर हूँ। मैं युगों-युगों से पर वस्तु को अपना मान कर हिंसा, असत्य आदि पापमय परिणाम कर परिग्रह का अर्जन करता रहा एवं सांसारिक संबंधों के माध्यम से नाना अपराधों में लगा रहा हूँ, जिसके कारण लेश्या के 8 माध्यमों (कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म व शुक्ल वर्ण के विचार) की पुलिस ने पकड़ कर आयु कर्म रूपी बेड़ी पहना दी है। कभी ये लेश्याएं ले जाकर नरक गति रूपी जेल में कैद कर देते हैं, जहां खाने पड़ते हैं नारकीय यातनाओं रूपी घोर हंटर। जीव पश्चाताप करता है और आगामी काल में ऐसे अपराध न करने का संकल्प करता है। कभी अन्य नारकी भाइयों के साथ यातना भोगता हुआ एवं उनको भयानक यातना देता हुआ अपना समय पूर्ण करता है।

कभी यहां से निकालकर मुझे बंद कर दिया जाता है तिर्यंच गति रूपी जेल में, जहां भोजन करने, तृषा मिटाने हेतु डगर-डगर घूमने, बोझा ढोने, अंगोपांग छेदने-भेदने आदि पराधीनता रूप असंख्य दुःखों का सामना करना पड़ता है। मालिक ने जो दे दिया, जैसा दे दिया; वैसा खा लिया। देह छेद दिया, शरीर की चमड़ी को उधेड़ दिया। इन तमाम दुःखों को सहन करते हुए मैंने अत्यंत संश्लेषित होकर काल व्यतीत किया।

उस जेल से निकाल कर रख दिया मनुष्य गति की जेल में। सोचा कि यहां का वातावरण, इष्ट मित्र-गण, सुख सुविधाएं आदि देखकर कुछ शांति मिलेगी। यहां भी परिजनों-परिचितों ने अपनी इच्छा पूर्ति के लिए मच्छरों के समान कर्कश वचनों एवं संकल्प-विकल्प के डंक मार-मार कर एक क्षण भी शांति का अनुभव नहीं होने दिया।

अब मुझे लाया गया देव गति रूपी जेल में, जहां की सुविधाएं देखकर मेरा मन प्रसन्नचित्त हो गया। मुझे तो मानो सब कुछ मिल गया हो। मैं भोगों में रम गया। अपने साथी देवों के साथ वार्तालाप में लीन हो गया। वहां के वैभव में रम कर अपने को परम सुखी अनुभव करने लगा, परंतु पुनः आ गया मृत्यु का जेलर और दिखाई दे गया हंटर। सहम गया, भयभीत हो उठा। क्षण भर का सुख, दुःख में बदल गया। कालरूपी आयु कर्म यहां भी छोड़ने वाला नहीं है। यह सुख, यह वैभव, यह भोग-उपभोग की माया, सभी कुछ क्षण उपरांत छिन जाने वाली है। इंद्रधनुष के समान चंचल ये सुख, मेघ के समान विलीन हो जाने वाले हैं।

सज़ा से बचने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है अपराधों से बचना। यदि हमारी अपराधी वृत्ति बनी रही, तो बार-बार वही कैद, वही जेल और वही असह्य पीड़ा का सामना करना पड़ेगा। इन्हीं चार गतियों और 8400000 योनियों में परिभ्रमण करना पड़ेगा।

सुविचार - परिग्रह का संचय करने से दुःख मिलता है और दान करने से अक्षय सुख मिलता है। दान-परोपकार से बढ़ कर संसार में प्राणियों के लिए दूसरा श्रेष्ठ धर्म नहीं है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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