संत वृत्ति
संत वृत्ति
एक राजा की एक संत में बहुत श्रद्धा थी। वह संत की सादगी व सांसारिक वस्तुओं के प्रति विरक्ति की बहुत प्रशंसा करता था। एक बार राजा ने संत को अपने महल में आने का निमंत्रण दिया। राजा की अपेक्षा के प्रतिकूल संत ने तुरंत ‘हां’ कर दी और चल पड़े। राजा की आस्था को झटका लगा। उसने अब संत की परीक्षा लेने की सोची और वह यह देखकर दंग रह गया कि संत ने राजमहल में किसी भी सुविधा के दिए जाने पर मना नहीं किया और सुविधाओं का उपभोग करते हुए साधना का क्रम जारी रखा।
एक माह के पश्चात अंततः राजा ने संत से कह ही दिया - ‘महात्मा जी! मैं तो आपको विरक्त संन्यासी मानता था, किंतु देखता हूँ कि आप और हम एक से ही हैं।’ संत ने कहा - ‘अंतर तो अब भी है और रहेगा। वास्तविकता जाननी है तो आओ मेरे साथ।’ राजसी ठाठ-बाट एक क्षण में छोड़कर संत कमंडल उठाकर राज्य की सीमा पार घने जंगल में स्थित एक गुफा में जाकर बैठ गए। फिर राजा से बोले - ‘तुम्हारे राज्य की सीमा तो छोटी सी थी, जो पार कर ली। हमारे राज्य की सीमा अंतहीन है। मैं तुम्हारे महल में था ज़रूर, पर महल मुझ में नहीं था। भोगों में रहकर भी उन्हें छोड़ने को तैयार रहना, यही संत वृत्ति है। हम सब रहते तो सुख-विलास के साधनों में हैं, पर कभी उनके बिना जीने का चिंतन नहीं कर पाते। तैयारी उसकी भी होनी चाहिए।’
राजा ने क्षमा मांगते हुए संत से वापस महल लौटने के लिए कहा परंतु उन्होंने विनम्रता पूर्वक मना करते हुए राजा को लौटा दिया और अपनी साधना में लीन हो गए।
सुविचार - धर्म की आभा मन को छूती हुई स्वभाव को निर्मल और जीवन को महान बना देती है।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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