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Showing posts from July, 2023

श्री मल्लिनाथ छोटा मंदिर जी, गांधी चौक, हिसार में भक्तामर विधान का आयोजन

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श्री मल्लिनाथ छोटा मंदिर जी, गांधी चौक, हिसार में भक्तामर विधान का आयोजन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज के 23 अगस्त, 2022 के प्रवचन का सारांश ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) श्री मल्लिनाथ छोटा मंदिर जी, गांधी चौक, हिसार में 23 अगस्त, 2022 को भक्तामर विधान का आयोजन बहुत धूमधाम से किया गया, जिसमें अनेक श्रद्धालुओं ने पुण्य-लाभ लिया। महाराज श्री ने अपने प्रवचन में बताया कि यह जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व से ग्रसित है और यही कारण है कि वह संसार में 84 लाख योनियों में भटक रहा है। यदि हमने एक बार भी सम्यक्त्व को धारण कर लिया, एक बार भी हमारी सच्ची आस्था व श्रद्धा जाग गई, तो हमारा मोक्ष मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। मुख्य रूप से तीन योग होते हैं - मनोयोग, वचनयोग व काय योग। उनसे हम मिथ्यात्व के मार्ग पर भी भटक सकते हैं और मोक्ष की राह पर भी चल सकते हैं। चाहे तो हम उन्हें अशुभ उपयोग में लगा लें, चाहे शुभ उपयोग में लगा लें और चाहे शुद्ध उपयोग में लगा लें। तत्त्वार्थ सूत्र के नौवें अध्याय के दूसरे सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने बताया है कि सबसे पहले गुप्ति को धारण करें और कछुए के स...

गुरु पूर्णिमा

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गुरु पूर्णिमा ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) गुरु और शिष्य का संबंध आस्था और प्रेम का पवित्र संबंध है। भले ही संबंध बंधन का कारण हो पर यह बंधन अनंत बंधन का अंत करता है। गुरु शिष्य को भौतिक जगत से ऊपर उठाकर भावना जगत में स्थापित करते हैं, जहाँ से अध्यात्म जगत की उड़ान भरी जा सके। भावना-जगत की नींव करुणा है तथा उसका शिखर विश्व प्रेम है। आज हम सभी गुरु पूर्णिमा की पावन मंगल बेला में अपने पूज्य गुरु का उपकार स्मरण कर रहे हैं। गुरु का जीवन में बहुत महत्व होता है। जिसके जीवन में गुरु होता है, उसी का जीवन वास्तविकता में शुरू होता है। गुरु वह होता है जो मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए पाथेय देता है। गुरु दो अक्षरों से मिलकर बना है गु + रु। गु यानी अंधकार और रु का अर्थ है - निवारण करना अर्थात् जो हमारे अंदर व्याप्त मोह व अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। कठोपनिषद में कहा गया है कि न गुरो रधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः। न गुरो रधिकं ज्ञानं, तस्मै श्री गुरूवे नमः।। ध्यान मूलं गुरोमूर्तिः, पूजा मूलं गुरोःपदम्। मूल मंत्रं गुर्रोवाक्यं, मोक्ष मूलं गुरोः कृप...

भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 3)

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भाव परिवर्तन की कला बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 3) वास्तव में कथा तो यहीं समाप्त हो जाती है, पर लेखक ने कथानक को स्पष्ट करने और विशेष प्रभावी बनाने के लिए आगे का कथानक भी लिखा है। आओ हम भी देखते हैं कि आगे क्या हुआ? मुनिराज ब्रह्मगुलाल वन में एक वृक्ष के नीचे चैतन्य के ध्यान में लीन हैं। अब उन्होंने अनादिकाल से धारण किए हुए आर्त्त-रौद्र स्वांगों को छोड़ कर परम उपशांत भाव रूप अपूर्व स्वांग को धारण किया है। अहा! अपूर्व शांत मुद्रा में मुनिराज कैसेे सुशोभित हो रहे है! इतने में एक सिंह छलांग लगा कर उनके ऊपर झपटा। यह सिंह वही जीव था जो पूर्वजन्म में राजकुमार था और सिंह के स्वांग में ब्रह्मगुलाल ने उस पर धावा बोला था। वह राजकुमार का जीव ही मर कर सिंह की पर्याय में पैदा हुआ था। वह मुनिराज ब्रह्मगुलाल के ऊपर जैसे ही धावा बोलने वाला था, तभी उनकी उपशांत मुद्रा देख कर उसके पाँव ठिठक गए। उसे लगा कि यह व्यक्ति उसने कहीं न कहीं पहले भी देखा है। तुरन्त उसे जातिस्मरण हुआ - “अरे! यह तो वही कलाकार ब्रह्मगुलाल है, मेरा मित्र! जिसने सिंह के स्वांग में मुझे मार डाला था। उस समय तो कितना रौद्ररूप में दिखाई दे ...

भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 2)

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भाव परिवर्तन की कला बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 2) पिछले भाग में हमने पढ़ा कि सिंह का स्वांग राजकुमार की मृत्यु का कारण बन गया। राजकुमार की अकालमृत्यु से राजा का हृदय अत्यन्त शोकमग्न था। वे प्रयत्न करने पर भी अपने दुःख को भुला नहीं पा रहे थे। ब्रह्मगुलाल के इस कृत्य से राजा का हृदय एक भयंकर विद्वेष से भर गया और वे किसी भी प्रकार उससे बदला लेना चाहते थे। वे उचित अवसर की राह देखने लगे, तभी उनके मन में एक विचार आया। एक दिन राजा ने ब्रह्मगुलाल को अपने पास बुला कर कहा - “कलाविद्! तुमने सिंह का स्वांग तो बहुत सफलतापूर्वक किया। तुम्हारे रौद्ररूप का दर्शन तो हो चुका, अब मैं तुम्हारे शान्त रूप के दर्शन करना चाहता हूँ। तुम दिगम्बर जैन साधु का स्वांग धारण करके मुझे वैराग्य के दर्शन कराओ, जिससे पुत्र-शोक से संतापित मेरे हृदय को शांति प्राप्त हो।” महाराज की यह आज्ञा रहस्यपूर्ण थी। उसे सुनकर ब्रह्मगुलाल सोच में पड़ गया। परन्तु दूसरे ही क्षण निर्णय करके उसने कहा - “महाराज! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परन्तु उसके लिए आपको थोड़ा समय देना होगा।” अपने मन की इच्छा पूरी होते देख कर राजा प्रसन्न हुआ और उसने कहा - ...

भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 1)

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भाव परिवर्तन की कला बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 1) जैन साहित्य में एक कहानी आती है - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल की, जिसने सिंह का स्वांग करने के बाद साधु का स्वांग धारण करके निज कल्याण किया। दर्शकों! केवल एक स्वांग देख कर घबरा मत जाना। क्षण मात्र में वह स्वांग बदल कर दूसरा सुन्दर स्वांग हो सकता है और संसार का स्वांग छोड़ कर मोक्ष मार्ग का सुन्दर स्वांग भी धारण कर सकता है। एक था राजकुमार। उसका एक मित्र कलाकार बहुरूपिया था। विविध स्वांग धारण करने में वह बहुत कुशल था। उसका नाम था ब्रह्मगुलाल। एक बार राजकुमार के सामने विवाद उपस्थित हुआ। वह राजकुमार अपने मित्र ब्रह्मगुलाल की कलाकारी की बहुत प्रशंसा किया करता था, परन्तु उसकी मित्र-मण्डली को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। मित्र कहते थे कि तुम उसकी अनुचित प्रशंसा करते हो। उसकी कला साधारण श्रेणी की है। उसमें भाव परिवर्तन की स्वाभाविक शक्ति नहीं है, जो कला के विद्वान पारखियों को सन्तुष्ट कर सके। राजकुमार उसकी कला को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता था। उसे ब्रह्मगुलाल की कला में एक विशेष आकर्षण दिखाई देता था। दूसरी ओर उसके मित्रों को एक जैन कलाकार की प्रशंसा बिल...

अर्हंत भक्ति विधान

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अर्हंत भक्ति विधान ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) परम पूज्य श्रमण मुनि श्री 108 विशोक सागर जी मुनिराज के पावन सान्निध्य में पुण्योदय क्षेत्र, हांसी (जिला हिसार) में आज 7.11.2022 को ‘अर्हंत भक्ति विधान’ का आयोजन किया गया, जिसका भक्तों ने बढ़-चढ़कर पुण्य लाभ लिया। मुनि श्री ने ‘अर्हंत भक्ति विधान’ का महत्व बताते हुए कहा कि इस विधान में अर्हत भक्ति की भावना भाई जाती है। ‘अर्हंत’ शब्द का अर्थ बताते हुए कहा कि यह शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है - अरि + हंत। अरि का अर्थ है शत्रु तथा हंत का अर्थ है - मारने वाला। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय व मोहकर्म - इन चार शत्रुओं का हनन करने वाले ‘अर्हत’ या अरिहंत कहलाते हैं। अरिहंत के गुणों में अनुराग की भावना रखना ही ‘अर्हंत भक्ति’ है। जैसे शास्त्र का फल शांति है, संपत्ति का फल दान है, लक्ष्मी का फल कीर्ति है, श्रम का फल धन है, मुनिपद में की जाने वाली तपस्या का फल ज्ञान है, शूरता का फल भयभीत मनुष्यों की पीड़ा नष्ट करना है, उसी प्रकार यौवन का फल दीक्षा धारण करना है और जन्म लेने का फल श्री जिनेंद्र देव के चरण कमल युगल की निरंतर सेवा...