भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 2)
भाव परिवर्तन की कला
बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 2)
पिछले भाग में हमने पढ़ा कि सिंह का स्वांग राजकुमार की मृत्यु का कारण बन गया।
राजकुमार की अकालमृत्यु से राजा का हृदय अत्यन्त शोकमग्न था। वे प्रयत्न करने पर भी अपने दुःख को भुला नहीं पा रहे थे। ब्रह्मगुलाल के इस कृत्य से राजा का हृदय एक भयंकर विद्वेष से भर गया और वे किसी भी प्रकार उससे बदला लेना चाहते थे। वे उचित अवसर की राह देखने लगे, तभी उनके मन में एक विचार आया।
एक दिन राजा ने ब्रह्मगुलाल को अपने पास बुला कर कहा - “कलाविद्! तुमने सिंह का स्वांग तो बहुत सफलतापूर्वक किया। तुम्हारे रौद्ररूप का दर्शन तो हो चुका, अब मैं तुम्हारे शान्त रूप के दर्शन करना चाहता हूँ। तुम दिगम्बर जैन साधु का स्वांग धारण करके मुझे वैराग्य के दर्शन कराओ, जिससे पुत्र-शोक से संतापित मेरे हृदय को शांति प्राप्त हो।”
महाराज की यह आज्ञा रहस्यपूर्ण थी। उसे सुनकर ब्रह्मगुलाल सोच में पड़ गया। परन्तु दूसरे ही क्षण निर्णय करके उसने कहा - “महाराज! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परन्तु उसके लिए आपको थोड़ा समय देना होगा।”
अपने मन की इच्छा पूरी होते देख कर राजा प्रसन्न हुआ और उसने कहा - “ठीक है! जितना समय तुम्हें चाहिए, उतना ले सकते हो, परन्तु साधु का अच्छे से अच्छा और ऊँचे से ऊँचा उपदेश देकर मेरे हृदय को शांत करना होगा।”
“अवश्य” ऐसा कह कर ब्रह्मगुलाल अपने घर चला गया।
महाराज की आज्ञानुसार ब्रह्मगुलाल ने साधु का स्वांग धारण करने का निश्चय कर लिया था, परन्तु यह कार्य बहुत कठिन था। इसमें पूरे जीवन की बाजी लगानी थी, क्योंकि वह जानता था कि जैन साधुओं का पवित्र स्वांग मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता। जिसने एक बार यह वेष धारण कर लिया, वह पुनः सांसारिक जीवनचर्या में लिप्त नहीं हो सकता। साधु का स्वांग करना कोई मज़ाक या बच्चों का खेल नहीं है। उस वेष के पीछे एक महान आत्म-कल्याण की भावना समाहित होती है।
ऐसे साधु का स्वांग धारण करने के लिए पहले उसने दृढ़ होकर वैराग्य भावनाओं का चिंतन किया और अपने हृदय को संसार से विरक्त बना लिया। उसका पूरा समय आत्म-चिंतन और आत्म कल्याण की भावनाओं में बीतने लगा। वह अपनी कला को वास्तविकता का रूप देना चाहता था।
स्व-पर के भेद विज्ञान के रूप में तत्त्वों का अभ्यास करके उसने संसार से विरक्ति की भावना में प्रवीणता हासिल कर ली। उसके अन्तर में उत्साह तो था ही कि अहो! मेरे भाग्य से अपने जीवन में साधु का स्वांग प्रदर्शित करने का सुन्दर अवसर आया है। मैंने संसार के पापपूर्ण स्वांग तो बहुत किए हैं, अब धर्म का सच्चा स्वांग करने का अवसर आया है।
ऐसी शान्त भावना से थोड़े ही समय में उसने अपने अन्तर में पूर्ण विरक्ति जागृत कर ली और अब वह गृहजाल का बंधन तोड़ने में समर्थ हो गया था। सम्यक्तव और आत्म-ज्ञान के प्रकाश से उसकी आत्मा आलोकित हो गई, वासना की बेड़ियाँ टूट गई। उसका हृदय शांत रस से भीग गया। उसके जीवन में अचानक आए परिवर्तन को देख कर परिवारजन आश्चर्यचकित हो गए।
वैराग्य से भरपूर ब्रह्मगुलाल ने साधु के स्वांग में प्रविष्ट करने की पूर्ण तैयारी करने के बाद अपने माता-पिता और पत्नी के सामने अपने मन का रहस्य प्रकट किया और साधु होने के लिए मंजूरी मांगी।
परिवारजन तो मोह के अधीन थे। ब्रह्मगुलाल के वैराग्य की बात सुन कर उनका मोह उमड़ पड़ा और उन्होंने एक बार ब्रह्मगुलाल को पुनः मोहसागर में ले जाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने तो अपनी आत्मा को मोहसागर से बहुत ऊँचा उठा लिया था। अब परिवारजनों के मन में मोह की उठती हुई लहरें उसे स्पर्श नहीं कर सकती थी। अपने पवित्र भावनात्मक उपदेश के द्वारा उसने अपने माता-पिता और पत्नी के हृदय के मोहजाल को भी तोड़ दिया और पवित्र भावनाओं के साथ सच्चा मुनिवेश धारण करने के लिए श्री ब्रह्मगुलाल जी वन की ओर चल दिए।
जंगल में जा कर उन्होंने अपने सभी वस्त्र उतार दिए और दिगम्बर मुद्रा धारण करके एक स्वच्छ शिला के ऊपर पद्मासन अवस्था में बैठ गए। फिर उन्होंने उत्कृष्ट भावना पूर्वक पंचपरमेष्ठी भगवंतों को नमस्कार करके स्वयं साधु दीक्षा ग्रहण की और आत्मध्यान में लीन हो गए।
संसार-नाटक का स्वांग पूरा करके अब उन्होंने साधु दशा का स्वांग नहीं, साधुपद ही धारण कर लिया था। जहाँ सिंह के रूप में रौद्ररस अपनी चरम सीमा पर था, वहीं अब साधु के रूप में शांतरस का अनन्त प्रवाह बह रहा था।
प्रभात का सुहावना समय है। महाराज अपने राजसिंहासन पर विराजमान हैं। सभासद भी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए हैं। तभी शांतरस में मग्न, प्राणीमात्र के प्रति मन में समता भाव धारण किए हुए एक मुनिराज राजभवन की ओर आते हुए दिखाई दिए। राजा ने दूर से ही साधु के पवित्र वेष को देखा, तो तुरन्त अपने सिंहासन से उठ कर उन्हें आमन्त्रित करके उच्च आसन पर विराजमान किया और धर्मोपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त की। मुनिराज ब्रह्मगुलाल ने पवित्र आत्म-तत्त्व का विवेचन किया।
“राजन्! हमारी आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं। तुम्हारे अन्दर क्षणमात्र में अपने भावों में परिवर्तन करके पामर से परमात्मा बनने की ताकत है। इसलिए शोक भाव छोड़ कर शांत भाव प्रगट करो।”
मुनिराज के ऐसे ही दिव्य उपदेश का राजा के हृदय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसे सुन कर उनके हृदय का सारा शोक नष्ट हो गया और अंतर में द्वेष की ज्वाला शांत हो गई। महाराज को उन पर पूर्ण श्रद्धा हो गई। हर्षित होकर उन्होंने कहा - “ब्रह्मगुलाल जी! आपने साधु के स्वांग को जैसा का तैसा पालन किया है। आपके वचनों से मेरे हृदय को बहुत शांति मिली है। आपके इस साधु के स्वांग को देख कर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। आप इच्छित वरदान माँगिए। अब आप जो माँगोगे, वह मैं देने के लिए तैयार हूँ।”
यह एक जाल था जो ब्रह्मगुलाल को साधु-स्वांग से भ्रष्ट करने के लिए प्रलोभन के रूप में फेंका गया था, परन्तु वे इसमें नहीं फँसे। वे बोले - “राजन्! आप एक दिगम्बर साधु के सामने ऐसे अनुचित शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे हो? क्या आप नहीं जानते कि जैन साधुओं को राज्य-वैभव की इच्छा नहीं होती। उन्हें अपने आत्म-वैभव के साम्राज्य के सामने संसार के वैभव की लेशमात्र भी इच्छा नहीं होती।”
ब्रह्मगुलाल मुनिराज ने आगे कहा - “हे नरेश्वर! मैंने ममता के सभी बंधनों को तोड़ दिया है। अब मैं निर्ग्रन्थ साधु हूँ और आपसे मुझे किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है। मैं मुक्तिपथ का पथिक हूँ। हमारा ध्येय पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है, आत्म्ध्यान ही मेरी सम्पत्ति है और मैं अपनी सम्पत्ति से संतुष्ट हूँ। इसके अलावा मैं कुछ नहीं चाहता।”
ब्रह्मगुलाल की एक परीक्षा और लेने के लिए राजा ने कहा - “परन्तु आपने तो यह साधु वेष केवल स्वांग के लिए ही धारण किया है। अब तुम्हारा स्वांग का कार्य पूरा हो गया है। तुम्हें अपना स्वांग बदल लेना चाहिए और इच्छित वैभव प्राप्त करके अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करना चाहिए।”
ब्रह्मगुलाल के हृदय में तो समतारस का सिन्धु उछल रहा था।
उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा - “राजन्! साधु का वेष मात्र स्वांग करने की वस्तु नहीं है। इस वेष में तो जीवनपर्यन्त ज्ञान और वैराग्य की साधना होती है। मैं सांसारिक वैभव का त्याग कर चुका हूँ। अब ये मेरे लिए उच्छिष्ट (झूठन) के समान है। अब मैं अपने आत्म-कल्याण के स्वतन्त्र मार्ग पर ही विचरण करूँगा और जगत को दिव्य आत्मधर्म का संदेश सुनाऊँगा। आप मेरे मन को विचलित करने का प्रयत्न न करें।”
मुनिराज ब्रह्मगुलाल की वैराग्य से ओतप्रोत वाणी को सुनकर राजा आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता रहा। तभी ब्रह्मगुलाल मुनिराज खड़े हुए और अपनी पिच्छी-कमण्डल लेकर मंद-मंद गति से जंगल की ओर चले गए।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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