गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)

गुरु और शिष्य का संबंध आस्था और प्रेम का पवित्र संबंध है। भले ही संबंध बंधन का कारण हो पर यह बंधन अनंत बंधन का अंत करता है। गुरु शिष्य को भौतिक जगत से ऊपर उठाकर भावना जगत में स्थापित करते हैं, जहाँ से अध्यात्म जगत की उड़ान भरी जा सके। भावना-जगत की नींव करुणा है तथा उसका शिखर विश्व प्रेम है।

आज हम सभी गुरु पूर्णिमा की पावन मंगल बेला में अपने पूज्य गुरु का उपकार स्मरण कर रहे हैं। गुरु का जीवन में बहुत महत्व होता है। जिसके जीवन में गुरु होता है, उसी का जीवन वास्तविकता में शुरू होता है। गुरु वह होता है जो मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए पाथेय देता है। गुरु दो अक्षरों से मिलकर बना है गु + रु। गु यानी अंधकार और रु का अर्थ है - निवारण करना अर्थात् जो हमारे अंदर व्याप्त मोह व अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।

कठोपनिषद में कहा गया है कि

न गुरो रधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।

न गुरो रधिकं ज्ञानं, तस्मै श्री गुरूवे नमः।।

ध्यान मूलं गुरोमूर्तिः, पूजा मूलं गुरोःपदम्।

मूल मंत्रं गुर्रोवाक्यं, मोक्ष मूलं गुरोः कृपा।।

अर्थात् तत्त्व गुरु से बड़ा नहीं है। तप गुरु से बड़ा नहीं है और ज्ञान भी गुरु से बड़ा नहीं है। गुरु तत्त्व, तप और ज्ञान से बढ़कर है। उन श्री गुरु के लिए नमस्कार हो। गुरु की छवि ध्यान का आधार है। गुरुचरण पूजा का मूल है। गुरु वचन मंत्र का मूल है तथा गुरु कृपा मोक्ष का मूल है।

आज की पावन-पुनीत बेला में हम सब आज वृषभ सेन को आदि लेकर गौतम स्वामी पर्यंत तक समस्त 1452 गणधरों को बारंबार स्मरण करते हुए नमन करते हैं। जब भी किसी कार्य का प्रारंभ किया जाता है, उसे ‘श्री गणेश होता है’ ऐसा कहा जाता है।

भगवान महावीर स्वामी को वैशाख शुक्ला दशमी के दिन केवल ज्ञान हो गया तथा देवराज इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना भी कर दी, परंतु भगवान का उपदेश नहीं हो रहा था। 65 दिन हो गए परंतु भगवान की देशना नहीं खिरी। जैसे आयोजन की घोषणा हो जाए और मुख्य पात्र न आए तो शोरगुल प्रारंभ हो जाता है क्योंकि उसको देखने की जिज्ञासा रहती है।

इसी प्रकार यदि गाड़ी लेट हो जाए और कोई व्यक्ति स्टेशन पर पहुंच जाए तथा उसी समय मालगाड़ी आ जाए तो सभी की दृष्टि उसी गाड़ी पर रहती है और सभी बोलने लगते हैं कि गाड़ी आ गई, गाड़ी आ गई क्योंकि सभी को जाने का इंतजार रहता है। और तो और, समय हो जाने पर और गाड़ी की आवाज सुनने पर सभी व्यक्ति हाथ में सामान लेकर प्लेटफॉर्म पर खड़े हो जाते हैं और जब देखते हैं कि यह तो मालगाड़ी है तो सभी अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं और इंतजार करते हैं। इसी प्रकार भव्य जीवों को इससे भी अधिक आतुरता भगवान के दिव्य देशना को सुनने की होती है क्योंकि जो प्यासा होता है, वही पानी की तलाश करता है और प्यास भी उसे ही होती है, जिसे रहस्य का पता होता है।

बंधुओं! धर्म की प्यास होने पर किसी को बुलाया नहीं जाता। वह तो स्वयं दौड़ कर आता है। इंद्र परेशान था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? वह अवधि ज्ञान लगाता है कि इस समय समवशरण में कोई भी पात्र नहीं है। अगर पात्र कोई है तो वह एकमात्र इंद्रभूति गौतम है, जो ब्राह्मण है तथा इतना अभिमानी है कि किसी की कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। तब इंद्र नीति व युक्ति से काम लेता है तथा अपने विद्या के बल से वृद्ध बनकर इंद्रभूति गौतम के पास जाता है। वह वृद्ध इंद्र कहता है कि हे गौतम! मेरे गुरु के द्वारा दिया गया पाठ मुझे समझ में नहीं आ रहा है। तब वह कहता है कि चल! दिखा। तेरा गुरु कौन है? वह वृद्ध वेषधारी इंद्र मन ही मन सोचता है कि मैं तो यही चाहता था और वह अत्यन्त खुश हो जाता है। देखते-ही-देखते वे दोनों समवशरण में पहुंच जाते हैं। वहां पहुंचते ही वह वृद्ध कहता है कि यह देखो! मेरे गुरु का स्थान आ गया।

इंद्रभूति गौतम की दृष्टि मानस्तम्भ पर पहुंचती है। उसे बड़ा भारी विस्मय होता है। देखते ही गौतम के विचारों में परिवर्तन आ जाता है। वह सोचता है कि जिसकी धर्मसभा इतनी विशाल व अद्भुत है तो ऐसी सभा का नायक कैसा होगा? क्योंकि शिष्य का अनुशासन देखकर गुरु के अनुशासन का पता लग जाता है। वह मन ही मन पश्चाताप करता है कि धिक्कार है मुझे! मैं इन्हें समझाने जा रहा था।

उसके मिथ्यात्व का गलन हो जाता है और सम्यक्त्व रूपी रश्मियाँ स्फुरायमान हो जाती हैं और उसे वैराग्य हो जाता है। वैराग्य होते ही वह दीक्षा ग्रहण करता है और भगवान का गणधर बनते ही भगवान की दिव्य देशना खिरना प्रारंभ हो जाती है।

बंधुओं! जीवन में गुरु का बहुत महत्व होता है। गुरु के बिना किसी प्रकार की विद्या का प्रारंभ नहीं होता और न ही विद्या सिद्ध होती है। गुरु के बिना धर्म का उद्गम नहीं हो सकता। गुरु एक सूर्य है, जो सभी को समानता से प्रकाश देते हैं। गुरु एक ऐसा सहारा है जो माता-पिता की उंगली की तरह हाथ पकड़ कर मंजिल तक पहुंचा देते हैं। गुरु असहाय के सहारे होते हैं। दीनों-अनाथों के लिए निधि हैं। बीमार व्यक्ति के लिए औषधि हैं। अंधे के लिए आंख हैं। जिसने गुरु नहीं बनाया, उसका जीवन अधूरा ही नहीं बल्कि यह समझो कि प्रारंभ ही नहीं हुआ है। गुरुपूर्णिमा हम सबको कृतज्ञता का पाठ पढ़ाती है। गुरु नारियल की तरह होते हैं जो बाहर से कठोर परंतु अंदर से अत्यंत कोमल होते हैं। गुरु मां के तुल्य होते हैं। जिस प्रकार मां कभी भी अपने बेटे का अहित नहीं चाहती, उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य का कभी अहित नहीं चाहते। समर्पित शिष्य उनके बताए गए कर्तव्य, आज्ञा एवं अनुशासन का पालन पूरी निष्ठा एवं भक्ति से करते हैं।

बंधुओं! जब गुरु अनुशासन करते हैं तो शिष्य को ख़राब लगता है लेकिन जब हम गुरु के निकट जाकर उनकी अंतरात्मा को देखते हैं तो शिष्य के प्रति अपार स्नेह व वात्सल्य भरा रहता है। वे ऊपर से शिष्य को डांटते हैं, कठोर अनुशासन करते हैं, परंतु अतरंग में उसके प्रति हित व वात्सल्य के भाव रखते हैं।

गुरु के हम पर अनन्य उपकार होते हैं। गुरु अपनी साधना के अमूल्य क्षणों में से समय निकालकर हम शिष्यों को शिक्षा-दीक्षा देते हैं। हमारी आलोचनाएं सुनते हैं तथा प्रायश्चित आदि देकर हम पर उपकार करते हैं। समय-समय पर हमें अच्छे-अच्छे संस्मरण, घटनाएं आदि सुनाते हैं। हमारे पूज्य गुरुवरों के उन महान उपकारों को चुका पाना किसी भी भव में संभव नहीं है।

अतः आज का यह पावन दिन हम गुरु के उपकारों को स्मरण करने हेतु ‘गुरु उपकार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। ऐसे महान उपकारी गुरुओं के चरणों का सहारा हमें भव-भव में, जन्म-जन्मांतर में भी प्राप्त होता रहे, ऐसी मंगल भावना के साथ आज की पुनीत बेला में पूज्य गुरु के चरणों में त्रियोग भक्ति पूर्वक कोटिशः नमोस्तु करते हैं तथा प्रार्थना करते हैं कि हे पूज्य गुरुवर! आपके कृत उपकारों के प्रति मैं सदैव कृतज्ञ बना रहूं और आप के बताए मार्ग पर चलकर शीघ्र निर्वाण की यात्रा पूर्ण करूं।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)