भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 1)

भाव परिवर्तन की कला

बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 1)

जैन साहित्य में एक कहानी आती है - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल की, जिसने सिंह का स्वांग करने के बाद साधु का स्वांग धारण करके निज कल्याण किया।

दर्शकों! केवल एक स्वांग देख कर घबरा मत जाना। क्षण मात्र में वह स्वांग बदल कर दूसरा सुन्दर स्वांग हो सकता है और संसार का स्वांग छोड़ कर मोक्ष मार्ग का सुन्दर स्वांग भी धारण कर सकता है।

एक था राजकुमार। उसका एक मित्र कलाकार बहुरूपिया था। विविध स्वांग धारण करने में वह बहुत कुशल था। उसका नाम था ब्रह्मगुलाल।

एक बार राजकुमार के सामने विवाद उपस्थित हुआ। वह राजकुमार अपने मित्र ब्रह्मगुलाल की कलाकारी की बहुत प्रशंसा किया करता था, परन्तु उसकी मित्र-मण्डली को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। मित्र कहते थे कि तुम उसकी अनुचित प्रशंसा करते हो। उसकी कला साधारण श्रेणी की है। उसमें भाव परिवर्तन की स्वाभाविक शक्ति नहीं है, जो कला के विद्वान पारखियों को सन्तुष्ट कर सके।

राजकुमार उसकी कला को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता था। उसे ब्रह्मगुलाल की कला में एक विशेष आकर्षण दिखाई देता था। दूसरी ओर उसके मित्रों को एक जैन कलाकार की प्रशंसा बिल्कुल नहीं सुहाती थी।

एक दिन राजकुमार का एक संबंधी उनसे मिलने आया, तो राजकुमार ने उसके सामने मुक्तकंठ से कलाविद् ब्रह्मगुलाल के भाव परिवर्तन की प्रशंसा की। उसकी प्रशंसा सुनकर अन्य मित्र उत्तेजित हो गए और एक मित्र ने कहा - “इस प्रकार के स्वांग रच लेना तो एक साधारण मनुष्य का काम है। यदि वह वास्तव में उच्च कोटि का कलाकार है, तो हम उसकी कला की भरे दरबार में परीक्षा की मांग करते हैं। उसमें सफल होकर दिखाए तो हम भी मान जाएंगे।”

राजकुमार को ब्रह्मगुलाल की कला पर पूरा विश्वास था। उसने तुरन्त कहा - “मित्रों! तुम ख़ुशी से उसकी परीक्षा ले सकते हो। तुम जो भी स्वांग उसे करने को कहोगे, वह उसके लिए तैयार है।”

मित्रों ने कहा - “ठीक है! आज हम उसे सिंह के रूप में देखना चाहते हैं।”

राजकुमार ने दृढ़तापूर्वक उनकी यह चुनौती स्वीकार कर ली।

दूसरे मित्र ने कहा - “मात्र भेष धारण कर लेना तो साधारण-सी बात है। उसमें सचमुच सिंह के समान तेज व पराक्रम होना चाहिए।”

राजकुमार ने कहा - “ठीक है! वह इस कला में हर प्रकार से समर्थ है।”

मित्र-मण्डली ने मन ही मन प्रसन्न होते हुए कहा - “अब आएगा मज़ा!”

राजकुमार ने सबको विश्वास दिलाया और वह ब्रह्मगुलाल को यह सूचना देने चला गया।

मित्रों! जानते हो ब्रह्मगुलाल कौन था? नाट्यकला विशारद ब्रह्मगुलाल पद्मावती पोरवाल जाति का एक जैन युवक था। उसका जन्म विक्रम संवत् 1600 के लगभग टापानगर में हुआ था। टापानगर की राजधानी सुदेश थी। ब्रह्मगुलाल को बचपन से ही नाट्यकला से बहुत प्रेम था और युवावस्था आते-आते वह इस कला में पारंगत हो गया था।

राजकुमार की सभा में वह कई बार अपनी कला का प्रदर्शन करके लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता था। जो स्वांग वह धारण करता था, उसमें वास्तविकता दिखाई देती थी।

राजकुमार ने ब्रह्मगुलाल से कहा - “मेरे कलाविद् बन्धु! आज तुम्हें दरबार में मेरी मित्र-मण्डली के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना है। मेरे मित्र तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं।”

ब्रह्मगुलाल राजकुमार की रहस्यमयी बातें सुन कर विचार में पड़ गए। उन्होंने कहा - “मित्र! क्या अभी तक तुम्हारी मित्र-मण्डली मेरी कला की परीक्षा नहीं कर पाई? मेरी कला का प्रदर्शन तो यहाँ बहुत समय से हो रहा है! फिर आज यह नया विचार कैसे आ गया?”

राजकुमार ने कहा - “हे मित्र! आज तुम्हें अपनी कला की परीक्षा देनी ही होगी। मैं जानता हूँ कि तुम्हारा प्रत्येक प्रदर्शन पहले से कहीं अधिक आकर्षक और विस्मयकारी होता है। आज तुम्हें सबसे अच्छा स्वांग करना है।”

ब्रह्मगुलाल ने कहा - “कुमार! यह तो बताओ कि आप मेरी यह परीक्षा किस रूप में करवाना चाहते हो?”

राजकुमार ने बात स्पष्ट की - “आज तुम्हें सिंह के पराक्रम का स्वांग प्रदर्शित करना होगा।”

ब्रह्मगुलाल ने कहा - “यह सब तो हो जाएगा, परन्तु.... तुम्हें भी कुछ करना होगा।”

राजकुमार ने कहा - “मित्र! बताओ, क्या करना है? ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जो मेरे लिए असंभव हो।”

ब्रह्मगुलाल ने गम्भीरता से कहा - “आपको महाराज से एक प्राणी के वध की मंजूरी लानी होगी। उसके बाद ही आप अपनी रंगशाला में सिंह का पराक्रम देख सकेंगे।”

राजकुमार ने कहा - “ठीक है। मैं यह व्यवस्था कर दूँगा।”

यह कह कर राजकुमार ने अपनी स्वीकृति दे दी।

(आह! यह राजकुमार नहीं, उसका भवितव्य बोल रहा था।)

परीक्षा का दिन निश्चित हो गया। आज राजकुमार नाट्यशाला में विशेष शृंगार करके आया था। वह एक सुन्दर सिंहासन पर बैठा था और उसके आसपास मित्र मण्डली बैठी थी। नागरिक भी सिंह के वास्तविक स्वांग को देखने के लिए उत्सुकतापूर्वक एकत्रित हो रहे थे। थोड़ी ही देर में सभामण्डप खचाखच भर गया। राजकुमार के मित्रों ने एक बकरा लाकर सिंहासन के निकट बाँध दिया।

अचानक.... एक भयानक सिंह ने छलांग मार कर सभामण्डप में प्रवेश किया। सिंह का भयानक रूप देख कर सभासद स्तम्भित रह गए। छोटे बालक सिंह का विकराल रूप देख कर भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे, चीखने और चिल्लाने लगे। वास्तव में सिंह की सभी क्रूर चेष्टाएँ उसमें परिलक्षित हो रही थी। सिंह, राजकुमार के सामने आकर तीव्र गर्जना करके थोड़ी देर खडा़ रहा।

सिंह की तीव्र गर्जना और भयानक रूप देख कर राजकुमार डरा नहीं, क्योंकि वह जानता था कि यह तो केवल स्वांग है। इसके विपरीत राजकुमार ने सिंह को खड़ा देख कर कहा - “अरे! तू कैसा सिंह है? सामने बकरा बंधा है और तू इस प्रकार गधे के समान चेष्टारहित खड़ा है! क्या यही सिंह का पराक्रम और शक्ति है? नहीं, तू सिंह है ही नहीं। यदि सिंह होता तो क्या तेरे सामने यह बकरा इस प्रकार जीवित रह सकता था?”

राजकुमार के शब्दों को सुनते ही सिंह की आँखें लाल हो गई और अपने पंजों को उठा कर वह कूदा।

राजकुमार के मित्र इस दृश्य को देख कर बहुत प्रसन्न हुए। वे यह विचार करने लगे - “यह ब्रह्मगुलाल अहिंसापालक जैन धर्म का अनुयायी है। यह किसी प्रकार की हिंसा नहीं कर सकता। अतः सिंह का स्वांग निभाने में अवश्य विफल होगा। यदि यह हिंसा का कार्य करेगा, तो जैन समाज द्वारा तिरस्कृत होगा। लगता है, अपने धर्म के विरुद्ध जाकर यह किसी की हिंसा तो नहीं करेगा।”

अभी वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि वहाँ तो सिंह अपने पंजे उठा कर एक छलांग में राजकुमार के सिंहासन के पास पहुँच गया और एक झटके में उसने अपने पंजों से राजकुमार को उसके सिंहासन से नीचे पछाड़ दिया। चारों ओर करुण चीत्कार से रंगशाला गूँज उठी। दर्शकों का हृदय किसी भयानक घटना की आशंका से काँप उठा और दूसरे ही क्षण दर्शकों ने देखा कि राजकुमार का मृत शरीर सिंहासन से नीचे पड़ा है। वह सिंह के तीव्र पंजों के आघात को सहन न कर सका और उसकी तत्काल मृत्यु हो गई।

एक पल में ही नाट्य-मण्डप का दृश्य विषाद में बदल गया। आनन्द के स्थान पर शोक छा गया। सिंह का स्वांग समाप्त हो गया था। अब ब्रह्मगुलाल अपने वास्तविक स्वरूप में आ गया था। विषाद की घनघोर छाया के साथ नाट्यशाला विसर्जित हुई।

महाराज ने राजकुमार की मृत्यु का समाचार सुना, परन्तु वे निरुपाय थे, क्योंकि ब्रह्मगुलाल को सिंह के स्वांग के लिए एक प्राणी के वध की मंजूरी उन्होंने स्वयं ही दी थी। शोक के सिवाय अब उनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं था। केवल एक ही उपाय था और वह था वैराग्य का।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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