भाव परिवर्तन की कला - बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 3)
भाव परिवर्तन की कला
बहुरूपी ब्रह्मगुलाल (भाग - 3)
वास्तव में कथा तो यहीं समाप्त हो जाती है, पर लेखक ने कथानक को स्पष्ट करने और विशेष प्रभावी बनाने के लिए आगे का कथानक भी लिखा है। आओ हम भी देखते हैं कि आगे क्या हुआ?
मुनिराज ब्रह्मगुलाल वन में एक वृक्ष के नीचे चैतन्य के ध्यान में लीन हैं। अब उन्होंने अनादिकाल से धारण किए हुए आर्त्त-रौद्र स्वांगों को छोड़ कर परम उपशांत भाव रूप अपूर्व स्वांग को धारण किया है। अहा! अपूर्व शांत मुद्रा में मुनिराज कैसेे सुशोभित हो रहे है!
इतने में एक सिंह छलांग लगा कर उनके ऊपर झपटा। यह सिंह वही जीव था जो पूर्वजन्म में राजकुमार था और सिंह के स्वांग में ब्रह्मगुलाल ने उस पर धावा बोला था। वह राजकुमार का जीव ही मर कर सिंह की पर्याय में पैदा हुआ था। वह मुनिराज ब्रह्मगुलाल के ऊपर जैसे ही धावा बोलने वाला था, तभी उनकी उपशांत मुद्रा देख कर उसके पाँव ठिठक गए। उसे लगा कि यह व्यक्ति उसने कहीं न कहीं पहले भी देखा है।
तुरन्त उसे जातिस्मरण हुआ - “अरे! यह तो वही कलाकार ब्रह्मगुलाल है, मेरा मित्र! जिसने सिंह के स्वांग में मुझे मार डाला था। उस समय तो कितना रौद्ररूप में दिखाई दे रहा था और अब यह कैसा शांत चित्त होकर बैठा है। अब तो यह सच में मुनि बन गया है। कहाँ वह क्रूर हिंसक भाव और कहाँ यह परमशांत भाव!!! जीव एक ही जन्म में अपने परिणामों को इतना कैसे बदल सकता है? अभी मैं भी तो इन पर हमला करने चला था, पर इनकी शांतमुद्रा देख कर मेरे भी भाव बदल गए हैं। यह कैसा भाव परिवर्तन!!!
ऐसा विचार करके वह सिंह चारों पाँवों पर बैठ कर उन्हें वंदन करने लगा। उसी समय मुनिराज की दृष्टि उस पर पड़ी और तभी उन्हें मालूम हुआ कि अब इसके भावों में परिवर्तन आ चुका है। वे करुणा से सिंह को संबोधन करने लगे -
“अरे सिंह! हे राजकुमार! देखो। देखो, यह भाव परिवर्तन की कला!! प्रत्येक जीव अपने भावों में क्षणमात्र में परिवर्तन करने की ताकत रखता है। अनादिकाल से यह जीव इसी प्रकार के अनेक स्वांग धारण कर चुका है। परन्तु विडम्बना यह है कि अब तक उसने क्रूर भाव ही धारण किए हैं, शांत भाव के नहीं। यदि आत्मध्यान के द्वारा एक बार भी मोक्ष का स्वांग धारण कर ले, तो वह पल भर में वास्तविकता में बदल सकता है। फिर जीव को कोई दूसरा रूप धारण ही नहीं करना पड़ेगा। संसार के सभी स्वांग क्षणिक हैं। तुम्हारी काया का मूल स्वांग तो सिद्धपद को प्राप्त करना है। हे जीव! तू अपने भावों को संभाल!!”
मुनिराज का पवित्र उपदेश सुन कर सिंह आनंदित हुआ और उसके भावों में अपूर्व परिवर्तन हुआ और आनन्द की अश्रुधारा से मुनि के चरणों का प्रक्षालन करने लगा। उसी समय राजा अचानक वहाँ से निकले और वहाँ का आश्चर्यकारी दृश्य देखकर रुक गए। उन्होंने मुनिराज ब्रह्मगुलाल से पूछा - “हे स्वामी! यह सिंह कौन है और आपके चरणों में आकर शांत क्यों हो गया है? मेरे मन में इसके प्रति वात्सल्य का भाव क्यों उत्पन्न हो रहा है?”
मुनिराज ब्रह्मगुलाल ने कहा - “सुनो राजन्! यह सिंह तुम्हारा ही पुत्र है। तुम्हारा राजकुमार ही सिंह के रूप में पैदा हुआ है। वह राजकुमार का और यह सिंह का स्वांग तो क्षणिक है। जीव का स्थिर स्वांग तो सिद्धपद रूपी चैतन्य का स्वांग है। इसलिए हे राजन्! पुत्रवियोग के शोक को छोड़ कर सिद्धपद को प्राप्त करने का उपाय करो।”
जब राजा को पता चला कि यह सिंह मेरा ही पुत्र है, तो वह अतिस्नेह से उससे गले मिलने लगा, तब फिर मुनिराज ने कहा - “अरे राजन्! यह मोह हमारा स्वभाव नहीं, विभाव है। तुम्हारा राजा होने का भाव भी क्षणिक है और पिता-पुत्र का सम्बन्ध भी क्षणिक है। अरे! अब तो छोड़ो इस क्षणिक स्वांग के मोह को!!”
बस! इतना सुनते ही राजा के ज्ञानचक्षु खुल गए - “अरे! कहाँ वह सिंह और कहाँ ये मोह के त्यागी साधु? कौन राजकुमार और कौन राजा? मुनिराज का कथन बिल्कुल सत्य है। मैंने संसार में भ्रमण करते हुए अनेक स्वांग किए हैं और भ्रम के वशीभूत होकर उन स्वांगों को ही अपना असली रूप मान बैठा। परन्तु इनमें से कोई भी स्वांग मेरा स्वरूप नहीं है। अब मैं अपने सिद्धपद रूपी अविनाशी स्वभाव को प्राप्त करने के लिए उत्तम स्वांग धारण करूँगा।”
ऐसा विचार करके राजा भी अपने भावों में सम्यक् परिवर्तन करके मुनि हुए और सिद्धपद के साधक बने।
मित्रों! भगवान महावीर का जीव भी एक जन्म में सिंह की पर्याय में था और वे हिरण का भक्षण कर रहे थे। वे अपने भावों में परिवर्तन करके शांतभाव रूप होकर त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर बन गए। हे जीव! तू भी अपने भावों को सम्यक् मार्ग में लगा और मोक्ष पद को प्राप्त कर।
।। इति मुनिराज ब्रह्मगुलाल कथा।।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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