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Showing posts from September, 2023

क्षमाशील बनो

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क्षमाशील बनो एक संत बहुत निस्पृही, शांत स्वभावी एवं क्षमाशील थे। भ्रमण करते-करते अचानक वे एक गन्ने के खेत में जा पहुँचे। उन्होंने खूब गन्ने काटे और सिर पर गन्नों का गट्ठर रखकर चल पड़े बाजार में बेचने। पर मार्ग में गन्ने के लालच में बच्चे उनके पीछे लग गए। वे उनसे गन्नों की मांग करने लगे। संत बहुत उदार प्रकृति के थे। वे किसी को क्या अस्वीकार करते और फिर अबोध बच्चों का आग्रह! वे सभी को गन्ने देते चले गए। बच्चे भी गन्ने का रसास्वादन करते रहे। घर पहुंचते-पहुंचते महात्मा के पास सिर्फ एक गन्ना ही शेष रहा। लेकिन संत श्री की धर्मपत्नी बहुत ही तेज, चिड़चिड़े स्वभाव की महिला थी। वाणी में कर्कश, व्यवहार में तीखी। माधुर्य व विनम्रता का उनमें नितांत अभाव था। पतिदेव के कंधे पर सिर्फ एक ही गन्ना देखकर गुस्से में लाल हो गई और बुरी तरह जल भुन गई। लगी अनर्गल बकवास करने। आपे से बाहर होकर संत से गन्ना छीनकर संत जी की पीठ पर दे मारा। गन्ना टूट गया। दो टुकड़े हो गए, परंतु संत जी हंसने लगे। वे पुलकित वचन बोल पड़े - बहुत अच्छा हुआ। तुम बहुत समझदार हो, चिंतनशील हो। दोनों के लिए गन्ने के दो टुकड़े मुझे करने पड़ते, लेकि...

जैन धर्म में त्याग और तपस्या का महत्त्व

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जैन धर्म में त्याग और तपस्या का महत्त्व ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) आज दसलक्षण धर्म के समापन के अवसर पर दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश - दुनिया में जैन धर्म में होने वाली त्याग और तपस्या का कोई सानी नहीं है। तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के प्रथम अध्याय की प्रथम पंक्ति में बताया गया है मोक्ष-मार्ग का रहस्य!! ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।’ सम्यक् (उचित प्रकार से) दर्शन अर्थात् श्रद्धा से सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र को धारण करना ही मोक्ष का मार्ग है। सम्यक् ज्ञान मध्य दीपक के समान है, जो श्रद्धा को भी प्रज्ज्वलित रखता है और चारित्र अर्थात् आचरण को भी सम्यक् बनाए रखने में सहायक है। जैसे नदी के दोनों किनारे नदी के प्रवाह को सही दिशा प्रदान करते हैं और अंत में सागर में समा जाने में सहायक बनते हैं; वैसे ही श्रद्धा सहित उचित प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हमारे द्वारा किए गए धर्माचरण की सहायता से हमें मोक्षपुरी तक पहुँचाता है। श्रद्धा नहीं तो ज्ञान व्यर्थ है और उस पर आचरण नहीं तो श्रद्धा व ज्ञान दोनों व्यर्थ हैं...

उत्तम ब्रह्मचर्य

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उत्तम ब्रह्मचर्य ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) आज दसलक्षण धर्म के दसवेंं दिवस पर ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ धर्म पर आधारित दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश - दसलक्षण धर्म के दस दिन घोर तपश्चरण के दिन हैं। व्रत-उपवास द्वारा शरीर को कृश किया जाता है और अंतरंग तप द्वारा कर्मों व कषायों को कृश करने का प्रयत्न किया जाता है। यह पर्व ‘उत्तम क्षमा’ से प्रारम्भ होता है और अंतर की विशुद्धि को बढ़ाता हुआ ‘क्षमावाणी पर्व’ पर जाकर समाप्त होता है। वास्तव में वह समापन का नहीं, पुनः आरम्भ करने का दिन है। आज दसलक्षण पर्व का अन्तिम दिन है और वह है - ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ । वास्तव में ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ ही सबसे उत्कृष्ट तप है। यह हमें अपनी आत्मा में लीन होकर ख़ुद को जानना सिखाता है। सच्चा साधक अपनी सभी इन्द्रियों व मन पर अंकुश लगा कर रखता है। उसे भूलोक की स्त्रियाँ तो क्या, स्वर्ग की देवियाँ भी अपने आकर्षण से, मोक्षमार्ग से पथभ्रष्ट नहीं कर सकती। रावण द्वारा अनेक प्रलोभन दिए जाने पर भी सती सीता अपने शीलव्रत पर अविचल रही। जो व्यक्ति आजीवन ब्रह्मच...

उत्तम आकिंचन

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उत्तम आकिंचन ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) आज दसलक्षण धर्म के नवम् दिवस पर ‘उत्तम आकिंचन’ धर्म पर आधारित दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश - आकिंचन का अर्थ है - मेरा इस दुनिया में किंचित भी नहीं है। ‘मैं’ का अर्थ है - आत्मा और मेरा अर्थात् आत्मा का क्या हो सकता है? कुछ भी तो नहीं। आत्मा तो शरीर को भी छोड़ कर चली जाती है। शरीर ही जब मेरा नहीं है, तो और कुछ मेरा कैसे हो सकता है। यदि आप उत्तम आकिंचन धर्म अपनाना चाहते हैं, तो धन के लिए धर्म को नहीं, धर्म के लिए धन को छोड़ना प्रारम्भ कर दो। उत्तम आकिंचन बाहरी परिग्रह को त्याग कर आत्म-स्वभाव में रमण करना सिखाता है। धर्म ज्ञान बिन जिंदगी, मानो गहन अंधेरा है। लाखों की दौलत है, फिर भी सुख का नहीं सवेरा है। यदि मानव अपना कल्याण चाहता है, तो परिग्रह का बोझ उतार कर स्वयं को हल्का करे। आत्मा हल्की होकर ही ऊर्ध्वगामी बन सकती है। अपनी ममता बुद्धि हरो, उत्तम आकिंचन वरो। अणु मात्र भी नहीं मेरा, ऐसा सम्यक् ज्ञान करो। उत्तम आकिंचन, यह धर्म कहाए रे.....। जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए र...

उत्तम त्याग

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उत्तम त्याग ( परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से ) आज दसलक्षण धर्म के अष्टम दिवस पर ‘उत्तम त्याग’ धर्म पर आधारित दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश - आदमी के हृदय में अनुराग होना चाहिए, आदमी के जिग़र में, आग होना चाहिए। इन सारी बातों को बनाए रखने के लिए, आदमी के जीवन में कुछ त्याग होना चाहिए।। ‘उत्तम त्याग’ धर्म का पालन करना है; तो जोड़ो नहीं, छोड़ो। छोड़ने से व्यक्ति हल्का होता है और जोड़ने से भारी। जैसे समुद्र हर समय पानी को संग्रह करता रहता है तो वह भारी होकर ज़मीन पर ही पड़ा रहता है और बादल उसमें से जो पानी सोख कर वाष्प बनाते हैं, उन्हें वर्षा के रूप में पुनः धरती को वापिस लौटा देते हैं; इसलिए वे हल्के होकर आकाश में विचरण करते हैं। नदियों का जल मीठा होता है, क्योंकि वे अपना जल लोगों की प्यास बुझाने और खेती-बाड़ी आदि अन्य कामों के लिए बाँटती रहती हैं; लेकिन ज्यों ही वे समुद्र में जा कर मिलती हैं, वे वहीं स्थिर हो जाती हैं और उनका जल भी ख़ारा हो जाता है। इसलिए यदि स्वयं को उपयोगी बनाना है, तो बांटो और बांटते रहो। अर्जन के साथ विसर्ज...

खारा समुद्र - उत्तम शौच

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खारा समुद्र - उत्तम शौच पात्र सूत्रधार बड़ा भाई - अमीरचन्द, उसकी पत्नी - विमला, पुत्र - अंकित और पुत्री - अंकिता छोटा भाई - ग़रीबचन्द, उसकी पत्नी - निर्मला, पुत्र - सौम्य और पुत्री - सौम्या एक वृद्ध व्यक्ति तीन बौने सूत्रधार - मुसाफिर क्यों पड़ा सोता, भरोसा है न इक पल का। दमादम बज रहा डंका, तमाशा है चलाचल का।। सुबह तो तख्तेशाही पर, बड़े सजधज के बैठे थे। दोपहरे वक्त में उनका, हुआ है, वास जंगल का।। संतों का कहना है कि ज़रा कर्म सोच कर करिए, इन कर्मों की बहुत बुरी मार है। नहीं बचा सकेगा परमात्मा, मेरी आत्मा की ये आवाज़ है।। सच ही कहा है कि कर्म देख-सुन कर, सोच-समझ कर ही करने चाहिए। पता नहीं कब कौन-सा सोया हुआ कर्म उदित हो जाए और हम उनके फल में ही उलझ कर रह जाएँ। आज हम आप को दिखाने जा रहे हैं एक लघु नाटिका - खारा समुद्र । आप इस नाटिका में देखेंगे और जानेंगे कि किसी उलझन में तभी हाथ डालो, जब तुम्हें उससे बाहर आने का उपाय मालूम हो। क्या आप जानते हैं कि समुद्र का जल ख़ारा क्यों होता है? तो चलिए जानते हैं इस लघु नाटिका के द्वारा। ये हैं बड़े भाई अमीरचन्द जी, जिनके पास आलीशान कोठी-बंगला, नौकर-चाकर, गा...