उत्तम आकिंचन
उत्तम आकिंचन
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
आज दसलक्षण धर्म के नवम् दिवस पर ‘उत्तम आकिंचन’ धर्म पर आधारित दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश -
आकिंचन का अर्थ है - मेरा इस दुनिया में किंचित भी नहीं है। ‘मैं’ का अर्थ है - आत्मा और मेरा अर्थात् आत्मा का क्या हो सकता है? कुछ भी तो नहीं। आत्मा तो शरीर को भी छोड़ कर चली जाती है। शरीर ही जब मेरा नहीं है, तो और कुछ मेरा कैसे हो सकता है। यदि आप उत्तम आकिंचन धर्म अपनाना चाहते हैं, तो धन के लिए धर्म को नहीं, धर्म के लिए धन को छोड़ना प्रारम्भ कर दो। उत्तम आकिंचन बाहरी परिग्रह को त्याग कर आत्म-स्वभाव में रमण करना सिखाता है।
धर्म ज्ञान बिन जिंदगी, मानो गहन अंधेरा है।
लाखों की दौलत है, फिर भी सुख का नहीं सवेरा है।
यदि मानव अपना कल्याण चाहता है, तो परिग्रह का बोझ उतार कर स्वयं को हल्का करे। आत्मा हल्की होकर ही ऊर्ध्वगामी बन सकती है।
अपनी ममता बुद्धि हरो, उत्तम आकिंचन वरो।
अणु मात्र भी नहीं मेरा, ऐसा सम्यक् ज्ञान करो।
उत्तम आकिंचन, यह धर्म कहाए रे.....।
जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए रे.....।
होनी अनहोनी कब क्या घट जाए रे.....।
दुनिया में चार प्रकार की भावना वाले लोग होते हैं -
1. मेरा सो मेरा, तेरा भी मेरा (दुर्योधनी प्रवृत्ति वाले लोग)
2. मेरा सो मेरा, तेरा सो तेरा (पाण्डव प्रवृत्ति वाले लोग)
3. तेरा सो तेरा, मेरा भी तेरा (राम जैसी प्रवृत्ति वाले लोग)
4. न मेरा, न तेरा; ये दुनिया एक झमेला (आकिंचन प्रवृत्ति वाले लोग)
जो आज तुम्हारे पास है, वह कल किसी और के पास था और कल किसी और के पास होगा। अतः संसार की वस्तुओं से ममत्व भाव का त्याग करो।
आकिंचन जब आता है, मूर्च्छा भाव हटाता है।
आत्म-स्वभाव जगाता है - 2
ब्रह्मचर्य प्रगटाता है, निज में रमण कराता है।
दस ही धर्मों में, निज आतम पाए रे.....।
जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए रे.....।
होनी अनहोनी कब क्या घट जाए रे.....।
आकिंचन धर्म का पालन वहीं हो सकता है, जहाँ सब कुछ होते हुए भी उसमें आसक्ति न हो, मूर्च्छा न हो। आसक्ति समाप्त होते ही व्यक्ति आत्म-स्वभाव में लग जाता है और मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। भरत चक्रवर्ती राजा होते हुए भी सारे वैभव से आसक्ति रहित थे, इसलिए उसी भव में मोक्षगामी हो गए। कीचड़ में कमल की तरह बनो। कीचड़ से पोषण लेते हुए भी कमल के पत्ते पर पानी की एक बूँद भी नहीं ठहरती। तुम संसार के भीतर रहो, पर संसार तुम्हारे भीतर नहीं आना चाहिए।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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