उत्तम ब्रह्मचर्य
उत्तम ब्रह्मचर्य
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
आज दसलक्षण धर्म के दसवेंं दिवस पर ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ धर्म पर आधारित दिगम्बर जैन मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ अंश -
दसलक्षण धर्म के दस दिन घोर तपश्चरण के दिन हैं। व्रत-उपवास द्वारा शरीर को कृश किया जाता है और अंतरंग तप द्वारा कर्मों व कषायों को कृश करने का प्रयत्न किया जाता है। यह पर्व ‘उत्तम क्षमा’ से प्रारम्भ होता है और अंतर की विशुद्धि को बढ़ाता हुआ ‘क्षमावाणी पर्व’ पर जाकर समाप्त होता है। वास्तव में वह समापन का नहीं, पुनः आरम्भ करने का दिन है।
आज दसलक्षण पर्व का अन्तिम दिन है और वह है - ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’। वास्तव में ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ ही सबसे उत्कृष्ट तप है। यह हमें अपनी आत्मा में लीन होकर ख़ुद को जानना सिखाता है। सच्चा साधक अपनी सभी इन्द्रियों व मन पर अंकुश लगा कर रखता है। उसे भूलोक की स्त्रियाँ तो क्या, स्वर्ग की देवियाँ भी अपने आकर्षण से, मोक्षमार्ग से पथभ्रष्ट नहीं कर सकती। रावण द्वारा अनेक प्रलोभन दिए जाने पर भी सती सीता अपने शीलव्रत पर अविचल रही। जो व्यक्ति आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत को धारण कर लेता है, तो समझ लो कि उसने अपनी ईश्वरीय शक्ति को पहचान लिया है। वह स्वयं परमात्मा बनने की राह पर चल पड़ा है।
ब्रह्म अर्थात् अपनी शुद्ध आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है। इससे अपनी आत्मा की ऊर्जा प्रगट होती है। वह पंचेन्द्रिय के विषयों को त्याग कर आत्मा की शक्तियों को पहचानने लगता है। आत्मा, इन्द्रियों द्वारा जानने का विषय नहीं है। जिस प्रकार सूर्य को कहीं से ऊर्जा लेने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं ही ऊर्जा का स्त्रोत है; उसी प्रकार हमारे अन्दर कुछ खाने-पीने से ऊर्जा नहीं आती। वह तो हमारे अन्दर ही है। बस! उसे जानने के लिए अंतर में उतरना पड़ता है।
आज ब्रह्मचर्य को स्थूल अर्थ में प्रयोग किया जाने लगा है, लेकिन ब्रह्मचर्य का अर्थ है - अपनी आत्मा की ऊर्जा को जानना व उसे प्रगट करना। जब यह ऊर्जा बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म (आत्मा) में पहुँचती है, तो वह ज्ञान प्रगट करती है और उसे कहते हैं ‘केवलज्ञान’। आज का इंसान वासना की दृष्टि से पशु से भी हीन होता जा रहा है, जिसे उचित-अनुचित की मर्यादा का भी ध्यान नहीं रहता। इसलिए विषयों की आशा को त्याग कर ब्रह्मचर्य को धारण करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ धर्म का पालन करने वाले को मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। एक छोटे-से त्याग से भी मानव, मनुष्य से देव बन सकता है, फिर समस्त इन्द्रियों की विषय-वासना के त्याग से तो अरिहंत बनने में देर नहीं लगती। हम जितना बाह्य विषय-भोगों के प्रति आसक्ति का त्याग करेंगे, उतना ही मोक्ष के समीप होंगे।
खिला-पिला कर इस मन को, रमा दिया इसमें मन को।
मन इन्द्रिय का राजा है, चाहे वो करवाता है।
मन चेतन से मिल जाए, तब ही चेतन खिल पाए।
चेतन दर्पण में, सब कुछ दिखलाए रे.....।
जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए रे.....।
होनी अनहोनी कब क्या घट जाए रे.....।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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