खारा समुद्र - उत्तम शौच

खारा समुद्र - उत्तम शौच

पात्र

सूत्रधार

बड़ा भाई - अमीरचन्द, उसकी पत्नी - विमला, पुत्र - अंकित और पुत्री - अंकिता

छोटा भाई - ग़रीबचन्द, उसकी पत्नी - निर्मला, पुत्र - सौम्य और पुत्री - सौम्या

एक वृद्ध व्यक्ति

तीन बौने

सूत्रधार -

मुसाफिर क्यों पड़ा सोता, भरोसा है न इक पल का।

दमादम बज रहा डंका, तमाशा है चलाचल का।।

सुबह तो तख्तेशाही पर, बड़े सजधज के बैठे थे।

दोपहरे वक्त में उनका, हुआ है, वास जंगल का।।

संतों का कहना है कि

ज़रा कर्म सोच कर करिए, इन कर्मों की बहुत बुरी मार है।

नहीं बचा सकेगा परमात्मा, मेरी आत्मा की ये आवाज़ है।।

सच ही कहा है कि कर्म देख-सुन कर, सोच-समझ कर ही करने चाहिए। पता नहीं कब कौन-सा सोया हुआ कर्म उदित हो जाए और हम उनके फल में ही उलझ कर रह जाएँ। आज हम आप को दिखाने जा रहे हैं एक लघु नाटिका - खारा समुद्र। आप इस नाटिका में देखेंगे और जानेंगे कि किसी उलझन में तभी हाथ डालो, जब तुम्हें उससे बाहर आने का उपाय मालूम हो। क्या आप जानते हैं कि समुद्र का जल ख़ारा क्यों होता है? तो चलिए जानते हैं इस लघु नाटिका के द्वारा।

ये हैं बड़े भाई अमीरचन्द जी, जिनके पास आलीशान कोठी-बंगला, नौकर-चाकर, गाड़ी, खेत-खलिहान, ज़मीन-जायदाद, धन-दौलत सब कुछ है।

आइए! इनके घर चलते हैं।

अमीरचन्द - अरी विमला! सुनती हो! चलो, आज तो अपने नगर के सभी मंदिरों के दर्शन करने चलते हैं। आज उत्तम शौच का पावन दिन भी है यानि लोभ के त्याग का दिन। इस बहाने कुछ दान-धर्म भी हो जाएगा और लोभ पर विजय पाने का अवसर भी मिल जाएगा। आज तो बच्चों की भी छुट्टी है न! उन्हें भी अपने साथ चलने के लिए तैयार कर लो और तुम भी जल्दी से तैयार हो जाओ।

विमला (गुस्से से तमतमाते हुए अपने पति की ओर इशारा करते हुए) - हे भगवान्! मैं तो तंग आ गई इनकी बेसिर-पैर की बातों से! जब देखो! मंदिर हो आएँ, दान-धर्म कर आएँ। जब देखो - दान! दान!! दान!!! और परिवार के लिए तो जैसे कोई कर्त्तव्य है ही नहीं। गाड़ी में जाएंगे, पैट्रोल भरवाएंगे तो नकद पैसा चाहिए, दान-धर्म करेंगे तो नकद पैसा चाहिए। मुझे तो लगता है कि सारी कमाई इसी में लुटा रहे हैं, बस!

अमीरचन्द - अरे विमला! तुम अभी तक तैयार नहीं हुई। सिनेमा, पार्टियों में जाने के लिए तो झट से तैयार हो जाती हो! वहाँ क्या नकद पैसा खर्च नहीं होता? वह तो तुम्हारे लिए मनोरंजन है, आउटिंग है और यह क्या है? यहाँ तो आत्मा को प्रसन्नता मिलती है!

विमला - ओहो! क्यों चिल्ला रहे हो? आ तो रही हूँ! आजकल के बच्चे भी बस समझ में नहीं आते। रात को तो देर तक जागते रहते हैं और सुबह उठने में आनाकानी करते रहते हैं। अभी ठहरो ज़रा! बच्चे तैयार हो रहे हैं।

अमीरचन्द - भई! जल्दी करो न! ड्राइवर गाड़ी में हमारा इन्तज़ार कर रहा है।

विमला - अच्छा! तब तक यह भी बता दो कि नाश्ते में क्या बनवाना है? ताकि आने के बाद इंतज़ार न करना पड़े।

अमीरचन्द - अरे! क्यों इतनी चिंता करती हो? आज तो अष्टमी है। एकासन करना है। बिना हरी का खाना बनवा लो न! सीधे खाना ही खा लेंगे। छोले, पूरी, चावल और रायता बनवा लो। साथ में मूंग की दाल का हलवा हो जाएगा, उसमें मेवा अच्छी तरह डलवा लेना।

विमला - हाँ ठीक है। फिर यही बनवा लेते हैं। चलो! बच्चे भी आ गए हैं तैयार होकर।

(सभी हाथ में द्रव्य सामग्री लेकर मंच के पीछे चले जाते हैं)

(दूसरी ओर से ग़रीबचन्द की पत्नी निर्मला का प्रवेश)

निर्मला - अजी सुनते हो, सौम्य के पापा! बताओ न! मैं कब तक बच्चों को खाने के नाम पर केवल दाल-भात खिलाती रहूँगी। दूध की जगह पानी पिला कर सुला देती हूँ। पढ़ने वाले बच्चे हैं। कुछ तो दूध-फल भी खाने को चाहिएं न! हम तो गुज़ारा कर लेंगे, पर इन मासूम बच्चों का क्या?

ग़रीबचन्द - हाँ, निर्मला! तुम ठीक कह रही हो। मेरी सेहत देख कर तो कोई मज़दूरी पर भी नहीं रखता। छोटे-मोटे काम से तो आटे दाल का ही काम मुश्किल से चल पाता है।

(सौम्य का प्रवेश)

सौम्य - पापा! पापा!! आप चिन्ता न करो। जब मैं पढ़-लिख कर कमाने लगूँगा, तो अपनी सारी ग़रीबी दूर हो जाएगी।

ग़रीबचन्द - जुग-जुग जीओ मेरे लाल! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

निर्मला - सुनो! मैं ये कह रही थी कि अपने अमीरचन्द भाई साहब के पास तो हर तरह की मौज है। क्यों न उनसे कुछ मदद माँग लें? दीवाली भी तो आने वाली है। ऐसे में हम त्यौहार कैसे मना पाएंगे? उनके बच्चों के कुछ कपड़े वगैरह ही मिल जाते अपने बच्चों के लिए, तो हमारे बच्चे भी दीवाली पर अच्छे कपड़े पहन कर दीवाली मना लेते।

ग़रीबचन्द - हाँ! सोच तो मैं भी रहा था, पर उनसे कम ही उम्मीद दिखाई देती है कि वे हमारी मदद करेंगे। क्या उन्हें नहीं पता कि उनका छोटा भाई कितनी तंगी में दिन गुज़ार रहा है!

निर्मला - हाँ! वो तो है, पर एक बार जाकर तो देखो!

(निर्मला रंगमंच के पीछे चली जाती है। ग़रीबचन्द चलने का अभिनय करता है और दूसरी ओर से अमीरचन्द का प्रवेश)

ग़रीबचन्द - नमस्ते भाई साहब! बाग की सैर कर रहे हो!

अमीरचन्द (भाई को देखकर फुसफुसाने लगते हैं) - कुछ न कुछ माँगने ही आया होगा। खुद तो कमाने लायक है नहीं, मेरी दौलत पर नज़र गड़ाए रखता है बस!

(प्रगट में तुनकते हुए) हाँ! हाँ! नमस्ते। क्यों? कैसे आना हुआ?

ग़रीबचन्द - भाई! क्या बताऊँ? अब तो भूखे मरने की नौबत आ गई है। काम कोई देता नहीं और जमा-पूंजी है नहीं। आप कुछ मदद कर देते तो बच्चों की दीवाली मन जाती।

अमीरचन्द - वाह भई वाह! मेरा अपना गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है और तू कहता है कि मैं तेरी मदद कर दूँ! देख! जब तक माँ-बाप थे, तब तक तेरा-मेरा कोई नाता था। अब तेरा-मेरा कोई नाता नहीं है। तू अपनी देख और मैं अपनी देखूँगा। क्या पता सुबह-सुबह भीख माँगने क्यों चले आते हैं लोग मुँह उठा कर!

ग़रीबचन्द (आँखें पोंछता हुआ) - ठीक है भाई! अच्छा किया जो आज आपने हकीकत बता दी। राम-राम भाई!

(ग़रीबचन्द चलने का अभिनय करता है और अमीरचन्द मुँह बिचकाता हुआ मंच के पीछे चला जाता है)

(तभी एक वृद्ध व्यक्ति का प्रवेश जो लकड़ी का गट्ठर उठाने की कोशिश कर रहा है)

ग़रीबचन्द (बुझे स्वर में) - राम! राम! काका।

वृद्ध व्यक्ति - राम! राम! बेटा! कहाँ जा रहे हो?

ग़रीबचन्द - क्या बताऊँ काका! काम धन्धा कोई है नहीं। यही सोच रहा हूँ कि अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करूँ?

वृद्ध व्यक्ति - बेटा! क्या तुम मेरा यह लकड़ी का गट्ठर मेरे घर तक पहुँचा दोगे? मैं भी तुम्हारी काम-धन्धे में मदद कर दूँगा।

ग़रीबचन्द (ख़ुशी से) - हाँ! हाँ! काका! क्यों नहीं? मैं अभी पहुँचा देता हूँ। चलो! इस बहाने आज के खाने का तो इंतजाम हो ही जाएगा।

(ग़रीबचन्द गट्ठर उठा कर थोड़ी देर वृद्ध व्यक्ति के साथ चलते हुए)

वृद्ध व्यक्ति - बस, बेटा! मेरा घर आ गया।

ग़रीबचन्द (मंच के एक कोने में गट्ठर जमीन पर रखते हुए) - लो काका! मेरा काम तो हो गया। अब आप मेरी मज़दूरी दे दो, तो मैं बच्चों के लिए कुछ खाने को ले जाऊँ।

वृद्ध व्यक्ति (रहस्यमयी आवाज़ में) - बेटा! तुम शक्ल से तो बहुत ईमानदार और नेकदिल लगते हो।

(पास ही रखे एक डिब्बे में से कुछ निकालते हुए) लो! मैं तुम्हें मेहनताने के रूप में ये तीन मालपुए देता हूँ।

ग़रीबचन्द - लेकिन काका! सिर्फ इन तीन मालपुओं से मेरे परिवार की भूख कैसे मिटेगी?

वृद्ध व्यक्ति (ठहरी हुई रहस्यमयी आवाज़ में) - बेटा! ये साधारण मालपुए नहीं हैं। देखो! मैं बताता हूँ। तुम ऐसा करो, ये तीनों मालपुए लेकर जंगल में छोटी पहाड़ी पर जाओ। वहाँ तुम्हें एक रहस्यमयी-सी गुफा दिखाई देगी। उसके अन्दर चले जाना। डरना मत। वहाँ तुम्हें तीन बौने मिलेंगे। उन्हें ये तीनों मालपुए दे देना। उनको ये बहुत पसन्द हैं।

ग़रीबचन्द - काका! तो क्या आप इसका भी मेहनताना अलग से देंगे? फिर तो मैं अभी भागकर पहुँचा देता हूँ।

वृद्ध व्यक्ति - अरे! मेरी पूरी बात तो सुनो। थोड़ा सब्र से काम लो। वे बौने तुमसे मालपुए लेने के बाद ख़ुश होकर पूछेंगे कि तुम्हें क्या चाहिए, बच्चा! तो तुम उनसे पत्थर की चक्की माँग लेना।

ग़रीबचन्द (रुआंसा होकर) - काका! मैं भला पत्थर की चक्की का क्या करूँगा? मेरे पास तो उसमें पीसने के लिए अनाज भी नहीं है।

वृद्ध व्यक्ति - बेटा! वह कोई मामूली चक्की नहीं है। पता है! वह एक जादुई चक्की है। बस! उस चक्की को चलाते जाओ और जो माँगोगे, तुम्हें वह देती जाएगी। अनाज, कपड़ा, बर्तन, घर, पैसा..... कुछ भी मांग सकते हो। बस! इतना ध्यान रखना कि यह भेद किसी को बताना नहीं, वरना उसका जादू तुम्हारे काम नहीं आएगा। अच्छा! अब तुम जाओ।

(वृद्ध व्यक्ति अपना गट्ठर उठा कर मंच से नीचे उतर जाता है और तीन बौनों का प्रवेश)

(तीनों बौने सफेद कुर्ता-धोती पहने मंच पर बीच में आकर उकड़ू अवस्था में बैठ जाते हैं)

(ग़रीबचन्द चलता हुआ उनके पास पहुँचता है)

तीनों बौने - अरे! मालपुओं की सुगंध आ रही है।

ग़रीबचन्द - जी महाराज! ये मैं आपके लिए ही लाया हूँ। कृपया इनको खाकर तृप्त होइए।

(ग़रीबचन्द बौनों को एक-एक मालपुआ देता है और उनके मुख पर संतुष्टि का भाव दिखाई देता है)

एक बौना - अरे! ये तो बहुत स्वादिष्ट हैं। बालक! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हुए। बोलो! तुम्हें जो चाहिए, माँग लो। धन-धान्य, कोठी-बंगले, कपड़े-जेवर। जो मांगोगे, वही मिलेगा।

ग़रीबचन्द - जी महाराज! मुझे अधिक कुछ नहीं चाहिए। आप तो मुझे केवल पत्थर की चक्की दे दो।

दूसरा बौना (पास रखी हुई चक्की को उठा कर) - शाबाश बेटा! तुमने यह चक्की माँग कर बहुत अच्छा किया। इसके बाद तो कुछ माँगना ही नहीं पड़ता। लो! यह एक जादुई चक्की है, जिसका तुम जैसे ईमानदार ही सदुपयोग कर सकते हैं।

तीसरा बौना - तुम्हें जिस वस्तु की आवश्यकता हो, इसे चला कर माँग लेना और बंद करने के लिए इस पर लाल कपड़ा ढक देना। यह अपने आप बंद हो जाएगी। ध्यान रहे, इसका भेद किसी दूसरे को भूल कर भी नहीं बताना, वरना इसका जादू खत्म हो जाएगा। अब तुम यह चक्की ले कर अपने घर जाओ।

(तीनों बौने आशीर्वाद देने की मुद्रा में चलते हुए मंच से नीचे आ जाते हैं। ग़रीबचन्द चलने का अभिनय करता है।)

ग़रीबचन्द (दो चार कदम चलने के बाद) - चलो! घर तो पहुँच गए। निर्मला! निर्मला!! कहाँ हो तुम? जल्दी से एक साफ चादर और एक लाल कपड़ा ले कर आओ।

(हाथ में चादर और एक लाल कपड़ा लेकर मंच पर निर्मला का प्रवेश)

निर्मला - हाँ! हाँ!! ला रही हूँ।

ग़रीबचन्द (ज़मीन की ओर इशारा करके) - ऐसा करो! यह चादर यहाँ बिछा दो।

(निर्मला चादर बिछाती है और ग़रीबचन्द उस पर चक्की रखता है)

निर्मला (ग़रीबचन्द के हाथ में चक्की देखते हुए) - अरे! यह चक्की कहाँ से ले आए? अपने पास कोई अनाज धरा है क्या इसमें पीसने के लिए?

ग़रीबचन्द - निर्मला! थोड़ा धीरज रखो। यह कोई मामूली चक्की नहीं है। अभी बताता हूँ इसका रहस्य! मुझे यह चक्की एक बूढ़े आदमी का सामान पहुँचाने के मेहनताने के रूप में मिली है। अब हमारी ग़रीबी जल्द ही दूर हो जाएगी।

(दोनों आपस में कुछ बातें करने का अभिनय करते हैं)

निर्मला - चलो देखते हैं कि अपनी ग़रीबी कैसे दूर होगी?

ग़रीबचन्द (चक्की के पास बैठ कर पहले हाथ जोड़ता है और फिर उसे घुमाते हुए) - चक्की-चक्की! कृपया हमें चावल निकाल कर दो।

(ग़रीबचन्द चक्की चलाता है और निर्मला देखने के बहाने चुपके से उसके चारों ओर चावल बिखेर देती है और चक्की के आसपास चावल दिखाई देने लगता है।)

निर्मला - अरे! यहाँ तो चावलों का ढेर ही लग गया। अब बस भी करो।

(ग़रीबचन्द उस पर लाल कपड़ा ढक देता है)

ग़रीबचन्द - लो! आज के लिए तो अपने पास खाने का इन्तज़ाम हो गया।

(बच्चे भी चावल उठा-उठा कर दर्शकों को ख़ुशी से चावल दिखाते हैं)

बच्चे (ख़ुशी से) - ये देखो! चावल! ये देखो! चावल!

निर्मला - अब चक्की से कहो न कि हमें दाल भी दे दे!

ग़रीबचन्द - हाँ! हाँ! क्यों नहीं? अब तो विश्वास हो गया न चक्की के जादू का कमाल!

ग़रीबचन्द (चक्की पर से लाल कपड़ा हटाते हुए) - चक्की-चक्की! कृपया हमें दाल निकाल कर दो।

(ग़रीबचन्द चक्की चलाता है और निर्मला चुपके से भिगोने में चावल समेट कर उसके चारों ओर दाल बिखेर देती है और चक्की के आसपास दाल दिखाई देने लगती है)

निर्मला - बस करो! बहुत हो गई दाल भी।

(ग़रीबचन्द उस पर लाल कपड़ा ढक देता है)

निर्मला (चावल और दाल के भिगोने उठा कर) - मैं अभी दाल-चावल बना कर लाती हूँ। फिर सब मिलकर मजे से खाएंगे।

(निर्मला और उसकी बेटी सौम्या भिगोने उठा कर मंच के पीछे जाकर वापिस हाथ में दो भिगोने, दो करछी और चार प्लेटें, चार चम्मच लेकर आती है। सबके सामने एक-एक प्लेट रख कर खाना परोसने का अभिनय करती है और सब खाने का अभिनय करते हैं और वाह! वाह! कितना बढ़िया स्वाद है - मज़ा आ गया - की आवाज़ निकालते हैं। फिर सोने का अभिनय करते हैं।)

निर्मला (अंगड़ाई ले कर उठते हुए) - अरे! सुबह हो गई! आज तो सबको इतनी अच्छी नींद आई, जैसी पहले कभी नहीं आती थी। (ग़रीबचन्द को हिलाते हुए) अजी! सुनते हो! अभी तो मैंने कल थोड़े से दाल-चावल बनाए थे। आज के लिए रख कर बाकी के दाल-चावल मण्डी में बेच आओ न! एक तो कुछ पैसे हाथ में आ जाएंगे और इस अनाज की संभाल भी नहीं करनी पड़ेगी। कहीं बारिश के मौसम में घुन लग गया तो ये किसी काम के नहीं रहेंगे।

ग़रीबचन्द - हाँ! हाँ! हम तो चक्की से जब चाहे और माँग लेंगे।

निर्मला - बाकी के दाल-चावल थैले में रखे हैं। ले जाओ।

(ग़रीबचन्द मंच के पीछे जाता है)

निर्मला (बच्चों से) - उठो बच्चों! स्कूल का समय हो गया।

(बच्चे उठ कर खड़े होते हैं और ग़रीबचन्द का प्रवेश)

ग़रीबचन्द - लो जी! अभी तो बाज़ार भी पूरी तरह नहीं खुला था और अपना सारा सामान बिक भी गया। उसके अच्छे पैसे मिल गए।

निर्मला - देखो जी! अब हम चक्की से थोड़ा सामान ही निकाला करेंगे और अपने लायक रख कर बाकी सामान रोज़ बाज़ार में बेच दिया करेंगे। उन पैसों से सबके लिए कुछ कपड़े वगैरह ले लेंगे और अपना घर भी तो ठीक करवाना है न!

सौम्या - हाँ पापा! दीवाली भी तो आने वाली है। हम उन पैसों से दीपक आदि खरीद कर उनकी दुकान भी तो लगा सकते हैं। अपने साथ-साथ सबकी दीवाली अच्छी मनेगी।

ग़रीबचन्द - हाँ! बच्चों! तुम जो कहोगे, वही करेंगे। बस! हमें किसी लोभ में नहीं पड़ना। उचित मुनाफे पर बेचेंगे और जो मिलेगा, उसी में समता भाव धारण करेंगे। लोग भी उसी दुकान से माल खरीदते हैं जो ठीक दाम में अच्छी क्वालिटी का सामान देता है। हमने तो यही सुना और पढ़ा है कि लोभ पाप का बाप बखाना। एक लोभ अनेक पापों को जन्म देने वाला होता है, इसीलिए उसे पाप का बाप कहा जाता है। पाप कर्म का बन्ध हमें दुर्गति में ले जाता है। हम ईमानदारी से चक्की का उपयोग करेंगे।

(सभी मंच से नीचे उतर जाते हैं और सूत्रधार का प्रवेश)

सूत्रधार - इस प्रकार लोभ कषाय का त्याग करके ग़रीबचन्द ने कुछ ही समय में अपना व्यापार बढ़ा लिया। उसके पास सुन्दर-सा मकान, वस्त्राभूषण हो गए। उसकी गिनती नगर के अमीरों में होने लगी। बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे और दीवाली भी ख़ूब धूमधाम से मनाई, लेकिन उसकी तरक्की देख कर उसके भाई अमीरचन्द का क्या हाल हुआ? यह तो देखते जाओ! अभी कहानी ख़त्म नहीं हुई है।

(विमला और अमीरचन्द का मंच पर प्रवेश)

विमला - अजी! सुनते हो! आजकल तो सारे नगर में ग़रीबचन्द के ही चर्चे हो रहे हैं। लगता है, उसके हाथ कोई जादुई चिराग लग गया है। वह तो हम से भी अधिक अमीर हो गया है। ज़रा पता तो करो! इतने कम समय में इतना धन-वैभव आख़िर आया तो आया कहाँ से?

अमीरचन्द - हाँ! आश्चर्य तो मुझे भी हो रहा है। अभी जाकर पता लगाता हूँ। पूछने पर तो वह बताएगा नहीं, छिपकर देखता हूँ उसके रंग-ढंग।

(विमला मंच के पीछे चली जाती है और अमीरचन्द वहीं कोने में एक कुर्सी की आड़ में छिपकर बैठ जाता है)

(अच्छे वस्त्र व आभूषण पहने हुए ग़रीबचन्द और निर्मला का चादर और चक्की लिए हुए तथा हाथ में दो स्टील की टंकी लिए हुए प्रवेश)

(ग़रीबचन्द चादर ज़मीन पर बिछाता है, उस पर चक्की रखता है)

ग़रीबचन्द - आओ निर्मला! चक्की चलाने का समय हो गया है। (हाथ जोड़ कर) चक्की! चक्की!! हमें आटा दो, हमें दाल दो।

(निर्मला उन्हें समेटकर टंकी में डालने का अभिनय करते हुए)

(दोनों अपना सामान वापिस मंच के पीछे ले जाते हैं)

अमीरचन्द - अच्छा तो यह है इनका जादुई चिराग़। यही सामान बेच-बेच कर ग़रीबचन्द अमीर हो गया है। आज जब यह मण्डी में सामान बेचने जाएगा, तो मैं चुपके से उसकी यह चक्की ही चुरा कर ले जाऊँगा।

(एक तरफ से अमीरचन्द मंच से नीचे जाता है और दूसरी तरफ से ग़रीबचन्द नोट गिनता हुआ प्रवेश करता है।)

ग़रीबचन्द (चलते-चलते) - हे भगवान्! इसी प्रकार कृपा बनाए रखना।

(एक तरफ से ग़रीबचन्द मंच से नीचे जाता है और दूसरी तरफ से अमीरचन्द हाथ में चक्की लिए हुए प्रवेश करता है, दूसरी तरफ से विमला का प्रवेश)

अमीरचन्द (ख़ुश होकर) - देखो! विमला! मैंने तो ग़रीबचन्द का ख़जाना ही चुरा लिया है।

विमला - क्या? यह चक्की?

अमीरचन्द - हाँ! यह चक्की ही उसे सब कुछ देती है।

विमला - अरे! चक्की तो ले आए! चलानी भी आती है या नहीं।

अमीरचन्द - हाँ! मैंने ख़ुद उसको चलाते हुए देखा है। बस! जो मांगो, यह वही देने लगती है। हम इसे लेकर नाव में बैठ कर कहीं दूर टापू पर चले जाएंगे और वहाँ मजे से रहेंगे। चलो! चलो! मैंने नाव का भी प्रबन्ध कर लिया है। बच्चों को भी साथ ले लो।

(अमीरचन्द और विमला जल्दी-जल्दी नाव खेने का अभिनय करते हैं। विमला के हाथ में चक्की है और अमीरचन्द पतवार चला रहा है)

विमला - एक बार चला कर तो देखो चक्की! यह दाल-चावल तो दे देगी, पर उसमें डालने के लिए नमक भी देगी न!

अमीरचन्द - हाँ! हाँ!! लो तुम पतवार संभालो। मैं चक्की से नमक माँगता हूँ।

(चक्की अपने हाथ में लेकर) चक्की-चक्की! हमें नमक दो।

(यह कह कर वह चक्की चलाने लगता है)

अमीरचन्द - अरे! यह क्या? यहाँ तो चारों ओर नमक ही नमक हो गया। अब क्या करें?

विमला - करना क्या है? अब इसे बंद करो न!

अमीरचन्द - मैंने तो चलाना भी बंद कर दिया है, पर यह तो अपने आप ही चलती जा रही है। (जोर-जोर से चिल्लाता है) रुक जा चक्की! रुक जा चक्की!!

विमला - आपने ध्यान से क्यों नहीं देखा कि उसने कैसे बंद की थी?

अमीरचन्द - मैं तो वह सामान ही देखता रह गया, जो चक्की दे रही थी। बंद करने की विधि तो मैंने देखी ही नहीं। हाय! अब क्या करें? नाव तो नमक के बोझ से पानी में डूबती जा रही है।

बच्चे (डर से चिल्ला कर) - पापा! हमें बचाओ! पापा हम डूब रहे हैं।

(धीरे-धीरे सब डूबने का अभिनय करते हुए मंच के कोने में चले जाते हैं)

नेपथ्य से - मैं जादुई चक्की हूँ। मैं लोभ करने वालों का ऐसा ही अंत करती हूँ। अब मरो सब समुद्र में डूब कर! मैं जा रही हूँ उस संतोषी और ईमानदार व्यक्ति ग़रीबचन्द के पास।

(मंच पर ग़रीबचन्द और उसका परिवार हाथ में चक्की लिए उसे देख-देख कर बहुत ख़ुश नज़र आते हैं)

सूत्रधार - तो देखा आपने! लोभी की नाव डूब जाती है और ईमानदार का जहाज़ भव सागर से पार उतर जाता है। कहते हैं न कि समय से पहले और किस्मत से अधिक किसी को कुछ नहीं मिल सकता। यही तो पाप-पुण्य का खेल है। पुण्य कमाओगे तो धर्म के साथ-साथ धन भी आ जाएगा और पाप कमाओगे तो अपना धन भी नमक बन कर समुद्र में समा जाएगा। मन में शुचिता लाओ और निर्लोभी बनो।

बोलो! आज के शौच धर्म की जय।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏

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