मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 16 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 16 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)

आज महाराज श्री का मंगल प्रवचन 14 सैक्टर की कोठी नम्बर 1013 में हुआ। भक्तों ने उनके प्रवचन का आनन्द लिया और स्वयं को कृतार्थ किया। आज महामना श्री कृष्णलाल पँवार, माननीय राज्यसभा सांसद, हरियाणा ने महाराज श्री के दर्शन-प्रवचन का लाभ लेकर स्वयं को धन्य माना। महाराज श्री ने सबको अहिंसा के पथ पर चलने के लिए आजीवन पाँच आवश्यक नियमों का पालन करने के लिए संकल्प-बद्ध किया।

1. अहिंसा व्रत - बिना प्रयोजन किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा।

2. व्यसन-मुक्ति - मदिरा आदि का सेवन नहीं करूँगा।

3. शाकाहार - किसी पशु-पक्षी का माँस व अण्डे का सेवन नहीं करूँगा।

4. बेटी बचाओ - भ्रूण हत्या कभी स्वयं भी नहीं करूँगा और किसी की अनुमोदना भी नहीं करूँगा।

5. स्वच्छता - सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखूँगा और वहाँ पर गंदगी नहीं फैलाऊँगा।

मुनि श्री ने बताया कि अज्ञान रूपी अंधकार सारे संसार में व्याप्त है। जैसे हम अंधकार को दूर करने के लिए दीपक जलाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए सम्यक् ज्ञान प्रदान करने वाले संतजनों रूपी दीपक के प्रकाश की आवश्यकता होती है।

हज़ार बुझे हुए दीपक एक बुझे हुए दीपक को नहीं जला सकते और एक जलता हुआ दीपक हज़ार बुझे हुए दीपकों को जला सकता है। संत व गुरुजन ऐसे ही ज्ञान के जले हुए दीपक हैं जो अपने ज्ञान के माध्यम से आप के अन्दर श्रद्धा और आस्था का दीपक जलाते हैं। संतजन ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं और श्रावक अपनी सामर्थ्य व योग्यता के अनुसार उनके उपदेश व शिक्षाओं को ग्रहण करते हैं। गुरुओं द्वारा लगाए गए शिविर, स्वाध्याय की कक्षाओं व पाठशाला आदि के माध्यम से श्रावक भी पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं।

कहा गया है -

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

संगत कीजे साधु की, हरे कोटि अपराध।

यदि हम एक घड़ी अर्थात् 24 मिनट भी साधु की संगति कर लेते हैं या उससे आधी 12 मिनट तक और उससे भी आधी 6 मिनट भी साधु के निकट आकर बैठते हैं, उनसे ज्ञान की बातें सुनते हैं और उसे अपने आचरण में लाते हैं, तो एक गृहस्थ का कल्याण हो सकता है। संत के माध्यम से हमें जीवन में संस्कार मिलते हैं, जिससे संसार में पूज्यता प्राप्त होती है।

हर पाषाण पूजनीय नहीं होता। जब एक सुघढ़ शिल्पी उसे तराश कर, हथौड़े से ठोक-पीट कर, तेज़ छैनी द्वारा उस पर प्रहार करके उसमें से सुंदर प्रतिमा को निकालता है और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, तभी वह पूजनीय बनता है। गुरु भी इसी प्रकार अज्ञानी श्रावक को व्रत-नियम-संयम के द्वारा तराशता है, उसके हृदय को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करता है और उसमें संस्कारों का बीजारोपण करता है, तो वह सामान्य-सा श्रावक भी समाज में पूजनीय और वंदनीय बन जाता है।

यह संस्कारों का बीजारोपण बचपन में ही कर दिया जाए, तो वह बच्चा युवा होते-होते एक अच्छा नागरिक बन सकता है और अपने माता-पिता, समाज व राष्ट्र का नाम रोशन कर सकता है।

किसी ने ठीक ही कहा है -

बूढ़े हों या हों बच्चे, संस्कार जब हों अच्छे।

तभी बनेंगे वो सच्चे, तभी बनेंगे वो सच्चे।

संस्कार शुभ लाओगे, जीवन सफल बनाओगे।

संस्कार सबको, सत्पथ दिखलाए रे...।

जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए रे।

होनी अनहोनी कब क्या घट जाए रे...।

जब हम अच्छे लोगों की संगति करते हैं तो हमारे जीवन में अच्छे संस्कार आते हैं और जब हम बुरे लोगों की संगति करते हैं तो हमारे जीवन में बुरे संस्कार आते हैं। जैसे लोहा पानी की संगति करता है तो उसे जंग लग जाता है और उसकी सारी योग्यता समाप्त हो जाती है। वह गल-सड़ कर मिट्टी बन जाता है। लेकिन वही लोहा पारस पत्थर की संगति कर ले या उसे सोने में मिला दिया जाए तो वह भी बहुमूल्य सोना हो जाता है।

यदि हम संतों की संगति करते हैं, तो हमारे अन्दर भी संतों के गुण और हमारे जीवन में उनके जैसा आचरण आ जाता है। यदि हम दुर्जनों की संगति में बैठते हैं, तो हमारे जीवन में दुर्जनता आती है। इंसान की संगति करते हैं, तो इंसान बन जाते हैं; शैतान की संगति करते हैं, तो शैतान बन जाते हैं, शराबी या चोर की संगति करते हैं, तो हम भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते और हम भी शराबी या चोर बन जाते हैं।

इसलिए यदि हमें शुभ संस्कार प्राप्त करने हैं तो संत-महात्मा, ज्ञानीजन, संत पुरुष की, सज्जन पुरुष की संगति करें। इससे हमारा जीवन सफ़ल व ख़ुशहाल होगा और हम सत्पथ पर चलकर मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं।

क्या आप जानते हैं कि अच्छे संस्कार हम कैसे ग्रहण कर सकते हैं?

बच्चे का बचपन गीली मिट्टी की तरह होता है। बच्चे को सँवारने वाली प्रथम गुरु उसकी माँ होती है। जैसे कुम्हार गीली मिट्टी को मनचाहा आकार दे सकता है, उसी प्रकार माँ अपने बच्चे को राम भी बना सकती है और रावण भी; कौशल्या भी बना सकती है और कैकेयी भी। ये संस्कार बच्चे के जन्म से पहले उसके गर्भ में आते ही मिलने शुरू हो जाते हैं। अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह को भेदन करना सीख लिया था। यदि माँ स्वयं अपने धर्म का पालन करती रहेगी तो बच्चे को सिखाना नहीं पड़ेगा। वह उन संस्कारों के साथ ही जन्म लेगा।

ऐसा बच्चा आज की चकाचौंध में, मोबाइल के जमाने में, गुरु या धर्म से विमुख तो हो सकता है, पर विपरीत कभी नहीं हो सकता और उचित समय आने पर वह स्वयं ही धर्म से जुड़ जाएगा। उसके बचपन के संस्कार जागृत हो जाएंगे।

यदि बच्चे को बड़े होकर संस्कार देने का प्रयत्न किया जाए, तब तक वह गीली मिट्टी सूख चुकी होती है। अब उस पर संस्कार का बीजारोपण करना व्यर्थ है। यदि आप बच्चों को अंगुली पकड़ कर मंदिर लेकर आओगे, तो वह भी आपको बड़े होने पर तीर्थवंदना कराने ले जाएगा, वरना वह वृद्धावस्था में वृद्धाश्रम में छोड़ कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर देगा।

बच्चों के सामने कोई ग़लत काम न करें, झगड़ा या गाली-गलौच आदि न करें। तम्बाकू-गुटखा आदि का सेवन न करें। वरना कहते हैं कि अच्छी आदतें सिखाने से भी नहीं आती और बुरी बातें केवल देखने से ही आ जाती हैं।

माँ बचपन को संभालती है, महात्मा युवावस्था को संभालते हैं और परमात्मा बुढ़ापे को संभालते हैं। अतः अच्छे संस्कार ही हमारे जीवन को तीनों अवस्थाओं में उन्नति व उत्थान की ओर ले जा सकते हैं।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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