मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 21 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश
मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 21 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
आज मुनि श्री के हिसार नगर-भ्रमण के कार्यक्रम का समापन हुआ और वे श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, देवेन्द्र कुमार जैन के निवास स्थान ‘गार्डन विला’ से विहार करके श्री बड़े मंदिर जी, नागोरी गेट में पधारे। नगरवासियों ने बड़े मंदिर जी में उनका हार्दिक स्वागत किया।
आज अपने प्रवचन में मुनि श्री ने बताया कि हम जीवन के अंत में इस संसार से अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकते, लेकिन विडम्बना यह है कि हमारा सारा जीवन वही नश्वर धन बटोरने में व्यर्थ चला जाता है। इसके विपरीत जो पुण्य की सम्पत्ति हमारे साथ अगले जन्म तक जाने वाली है, उस ओर हम किंचित भी पुरुषार्थ नहीं करते। संत हमें समझाते हैं कि यदि तुम्हारे साथ कुछ जाने वाला है तो केवल धर्म रूपी धन ही है। वरना जीवन का अंत हो जाएगा, पर धन की तृष्णा का कभी अंत नहीं होगा। वह तो ज्यों की त्यों बनी रहेगी। यदि हम मोक्ष पाना चाहते हैं और संसार के दुःखों से मुक्ति पाना चाहते हैं तो अपनी शक्ति व अपना पुरुषार्थ धर्म कमाने में लगाओ, धन कमाने में नहीं।
जैसी भावना भाओगे, वैसा ही फल पाओगे। भावना ही भव-नाशिनी है और भावना ही भव-वर्धिनी है। भावना से ही भव का नाश होता है और भावना से ही भव की वृद्धि होती है और हम यूँ ही 84 लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
जैसे ग्रन्थ लिखते समय उसे ‘अधिकार’, ‘पद’, ‘सर्ग’ आदि में बाँटा जाता है और जब ग्रन्थ का अन्तिम अध्याय लिखा जाता है, तो कहा जाता है कि यह ग्रन्थ का अन्तिम ‘अधिकार’ है। इसी प्रकार जीवन के अन्तिम अध्याय को अर्थात् मृत्यु के समय को जीवन का अन्तिम ‘अधिकार’ मानना चाहिए। संसार की अन्य सभी वस्तुओं पर से अपना अधिकार छूट जाता है और केवल स्वयं पर, अपनी आत्मा पर ही अपना अधिकार रह जाता है, जो हमें अगली पर्याय तक ले जाती है। जब तक अन्य वस्तुओं या व्यक्तियों पर अपनी अधिकार दृष्टि रहेगी, तब तक अपनी सल्लेखना-समाधि पर अपनी दृष्टि नहीं जा सकती। हम पूज्य-पूजक भाव में ही अटके रहेंगे और अपने मरण को सुमरण नहीं बना सकेंगे।
समाधि का अर्थ है - ध्यान। आधि-व्याधि-उपाधि की ओर से दृष्टि हटा कर केवल अपनी आत्मा में सारा ध्यान केन्द्रित हो, तभी सल्लेखना पूर्वक मरण हो सकता है। समाधि हमेशा निर्विकल्प दशा में ही होती है। जैसे मंदिर की शोभा शिखर से, शिखर की शोभा कलश से और कलश की शोभा ध्वजा से होती है; उसी प्रकार जीवन की शोभा व्रत से, व्रत की शोभा नियम से और नियम की शोभा संयम धारण करने से होती है।
जैसे बिना शृंगार के स्त्री और बिना मुकुट के राजा सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार बिना सल्लेखना के साधना का कोई औचित्य नहीं है। साधना का उत्कृष्ट फल सल्लेखना-समाधि है और साधना का साम्राज्य ‘सिद्धालय’ है। केवल शरीर को व्रत-उपवास से दुर्बल करने का नाम साधना नहीं है। उसके साथ-साथ चारों कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ भी बलहीन होने चाहियें। हम उन पर विजय प्राप्त करके ‘सिद्धालय’ में वास करें और शाश्वत सुख का आनन्द ले सकें, तभी हमें जीवन भर की गई साधना का सुफल प्राप्त होगा।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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