सच्चा दान

सच्चा दान

श्री शिखर जी में पंचकल्याणक की प्रतिष्ठा के समय कलश चढ़ाने की बोली हुई। कलश की बोली ऊँची जा रही थी। 51 हजार रुपये की बोली एक प्रसिद्ध उद्योगपति की थी। जनता की धारणा थी की इतनी ऊँची बोली और न जा सकेगी। तीन कहने से पहले एक ओर से 55000 की आवाज़ आई। लोगों का ध्यान उस ओर गया। एक साधारण समर्थ गृहस्थ ने बोली लगाई जो एक लाख तक पहुंच गई। किंतु दोनों एक दूसरे से बढ़ते चले जा रहे थे। अंत में बोली एक लाख ग्यारह हज़ार में प्रसिद्ध उद्योगपति की रही। उद्योगपति ने बहुत स्नेह व सौजन्य से उस व्यक्ति से भी भेंट करना चाहा, जिसने एक लाख दस हज़ार तक बोली बोली थी।

दोनों उदार मना स्नेह से एक दूसरे के गले मिले। उस गृहस्थ ने उद्योगपति की धर्म भक्ति की बहुत सराहना की और कहा कि वह ही कलश चढ़ाने के उपयुक्त पात्र हैं। साथ ही उसने कहा कि मैंने एक लाख दस हज़ार तक बोली बोली थी तो शायद किसी को भ्रम हो कि मैंने केवल बोली बढ़ाने की इच्छा से बोला तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि जितनी रकम बोली में मैंने देना स्वीकार किया था, मेरी दृष्टि में उतनी रकम निर्माल्य हो गई। अतः मेरी बोली का एक लाख दस हज़ार रुपए का चेक मैं मंदिर जी के ऑफिस में जमा करा रहा हूँ।

इस चकाचौंध करने वाली घोषणा से जनता में अभूतपूर्व आनंद छा गया। उद्योगपति फिर उनके गले मिले और गद्गद् वाणी में बोले कि मेरी बोली में सौदा हुआ है और उनकी बोली में शुद्ध दान। अतः इनका पलड़ा भारी है और मेरा हल्का। हार कर भी उनकी ही जीत है। आज उन्होंने हमें निर्माल्य द्रव्य की नई परिभाषा दी है।

प्रबंधकों ने उस दानी श्रावक का अभिनंदन करना चाहा किंतु उसने स्वीकार न किया। कहा कि उसका दान फिर सौदा हो जाएगा। निर्माल्य द्रव्य से वह अभिनंदन नहीं चाहता है। निर्माल्य द्रव्य निर्माल्य है। सारी जनता के मुख से अनायास ही ‘धन्य धन्य’ निकल गया।

सुविचार - बाह्य जीवन में वैभव है तो कुछ नहीं है, किन्तु जीवन में शांति है तो सब कुछ है। यदि जीवन में शांति नहीं, तो बाह्य वैभव व्यर्थ है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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