अज्ञान - सर्वनाश की कगार

अज्ञान - सर्वनाश की कगार

अज्ञान, प्राणी का सबसे बड़ा दुश्मन है। अज्ञानी जीव की कहीं भी कोई पूछ नहीं होती। अज्ञान से जीव का कोई सुधार न होकर उसका बिगाड़ ही संभव है। अज्ञानी की कोई इज्जत नहीं होती।

एक व्यक्ति महामूर्ख था। एक बार वह अपनी ससुराल गया। ससुराल में उसका खूब आदर-सत्कार किया गया। बड़ी उमंग से सास ने चूरमा के लड्डू खिलाए। दामाद को लड्डू बहुत पसंद आए।

उसने सास से पूछा - इसका नाम क्या है?

सास ने कहा - चूरमा के लड्डू।

महामूर्ख सोचने लगा कि घर पहुंच कर चूरमा बनवाऊंगा और पेट भरकर खाऊंगा। वह मन ही मन चूरमा की रट लगाता हुआ अपने घर की ओर लौट पड़ा। वह जानता था कि वह रटेगा नहीं, तो सब भूल जाएगा। रास्ते में एक छोटा-सा नाला पड़ा। उसे पार किए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता था। उसने नाला पार करने की तरकीब सोची और पार भी कर लिया लेकिन इस बीच चूरमा शब्द भूल गया और उसके बदले ‘वाह! क्या पार किया’ शब्द जबान पर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद उसने घर पहुंच कर पत्नी से कहा - सुनो! जल्दी करो। मेरे लिए ‘वाह! क्या पार किया’ बना दो। मुझे तो वही खाना है। मेरी सास अर्थात् तुम्हारी माँ ने बहुत मीठे ‘वाह! क्या पार किया’ बनाए थे।

पत्नी सोच में पड़ गई - अरे! यह ‘वाह! क्या पार किया’ किस चिड़िया का नाम है? बात उसकी समझ में नहीं आई। देर होते देखकर महामूर्ख का गुस्सा बढ़ने लगा। वह बोला - क्या निठल्ली बैठी है? बनाती क्यों नहीं?

पत्नी ने कहा - ‘वाह! क्या पार किया’ कैसे बनता है? मैं तो जानती नहीं हूँ। मैंने कभी देखा ही नहीं है। आपकी सास जानती है तो वापस उनके घर जाओ और उनसे कहो कि ‘वाह! क्या पार किया’ बना दे।

यह सुनकर उसका पारा चढ़ गया। पास ही में एक डंडा पड़ा था। उसे उठाकर वह अपनी घरवाली को दनादन पीटने लगा। इतना पीटा कि उसके सारे शरीर पर चकत्ते पड़ गए। पास-पड़ोस के लोग दौड़कर इकट्ठे हो गए।

पति को डांटते हुए बोले - अरे! बीवी को कोई ऐसे पीटता है क्या? मार-मार कर बेचारी का चूरमा बना डाला।

वह बोला - हाँ! हाँ!! यही तो! मुझे चूरमा के लड्डू खाने हैं। मैं तो इसका नाम ही भूल गया था।

सब ने कहा - महामूर्ख कहीं का! अपनी भूल का दण्ड पत्नी को दे दिया।

वास्तव में अज्ञानी अपनी नादानी में विवेक को खो देता है। अन्यत्र तो क्या धर्म कार्यों में भी नादानी बरतता है। वह सोचता है कि नदी और तालाब में स्नान करना ही धर्म है। पत्थरों के ढेर लगाकर धर्म मानना ही धर्म है। इसी प्रकार पर्वत से गिर पड़ना, अग्नि से जलना, गाय में अनेक देवताओं का निवास स्थान है केवल ऐसा समझ कर पूजा करना, वृक्ष या यक्ष आदि की उपासना करना, यह सब अज्ञानता है। ये सब मिथ्यात्व को वृद्धिगत कर उसका पोषण करने वाली क्रियाएं हैं। इससे इस लोक और परलोक, दोनों प्रकार के लोकों में मिलने वाले सुख से वह जीव वंचित रहता है। अज्ञानी अपना सर्वनाश स्वयं करता है।

अतः प्रत्येक क्रिया ज्ञान सहित बुद्धिपूर्वक करने से ही मिष्ट फलदायी होती है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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