कुरल काव्य भाग - 105 (दरिद्रता)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 105

दरिद्रता

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 105

दरिद्रता

दारिद्रयादधिकं लोके वर्तते किन्नु दुःखदम्।

इति पृच्छास्ति चेत्तर्हि शृणु सैवास्ति निःस्वता।।1।।

क्या तुम जानना चाहते हो कि दरिद्रता से बढ़कर दुःखदायी वस्तु और क्या है? तो सुनो, दरिद्रता ही दरिद्रता से बढ़कर दुःखदायी है।

पद्य अनुवाद -

निर्धनता से अन्य क्या, बढ़कर दुःखद वस्तु।

तो सुनलो दारिद्र ही, सबसे दुःखद वस्तु।।1।।

-

हतदैवं हि दारिद्रयमस्त्येवेहाति दुःखदम्।

पारलौकिकभोगानामप्यास्ते किन्तु घातकम्।।2।।

सत्तानाशिन दरिद्रता इस जन्म के सुखों की तो शत्रु है ही, पर साथ ही साथ दूसरे जन्म के सुखोपभोग की भी घातक है।

पद्य अनुवाद -

इस भव के सब हर्ष ज्यों, हरता शठ दारिद्र।

पर भव के भी भोग त्यों, हनता है दारिद्र।।2।।

-

तृष्णानुबन्धिदारिद्रयं सत्यं गर्ह्यातिगर्हितम्।

वंशस्य गुरुतां हन्ति वाचो यच्च मनोज्ञताम्।।3।।

ललचाती हुई कंगाली वंश-मर्यादा और उसकी श्रेष्ठता के साथ वाणी के माधुर्य तक की हत्या कर डालती है।

पद्य अनुवाद -

तृष्णाभरी दरिद्रता, सचमुच बड़ी बलाय।

वाणी कुल की उच्चता, हनती क्षण में हाय।।3।।

-

हीनस्थितिर्मनुष्यस्य महती कष्टदायिनी।

हीना इव प्रभापन्ने सुवंश्या अपि यद्वशात्।।4।।

गरज, ऊँचे कुल के आदमियों तक की आन छुड़ाकर उन्हें अत्यन्त निकृष्ट और हीनदासता की भाषा बोलने के लिए विवश करती है।

पद्य अनुवाद -

हीनदशा नर को अहो, देती कष्ट महान।

बोले वंशज हीन सम, तजकर कुल की आन।।4।।

-

अभिशापोऽस्ति दैवस्य दारिद्रयापरनामकः।

निलीनाः सन्ति यस्याधो विपदो हि सहस्रशः।।5।।

उस एक अभिशाप के नीचे कि ‘जिसे लोग दरिद्रता कहते हैं’, हजार तरह की आपत्तियाँ और उपद्रव छिपे हुए हैं।

पद्य अनुवाद -

सचमुच है दारिद्र भी, विधि का ही अभिशाप।

छिपे हजारों हैं जहाँ, विपदामय सन्ताप।।5।।

-

रिक्तस्य न हि जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः।

अलमन्यैर्न लोकेभ्यो रोचते तत्सुभाषितम्।।6।।

निर्धन आदमी बड़ी कुशलता और प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ अगाध तत्त्वज्ञान की भी विवेचना करे, तो भी उसके शब्दों की कोई कीमत नहीं होती।

पद्य अनुवाद -

निर्धन जनके श्रेष्ठ भी, गुण हैं कीर्तिविहीन।

प्रवचन भी रुचता नहीं, उसका गुण से भीन।।6।।

-

आदौ रिक्तः पुनर्धर्माद्धीनो यस्तु पुमानहो।

पौरुषं तस्य संवीक्ष्य तन्मातैव जुगुप्सते।।7।।

एक तो कंगाल हो और फिर धर्म से शून्य, ऐसे अभागे दरिद्री से तो उसको जन्म देने वाली माता का भी मन फिर जायेगा।

पद्य अनुवाद -

पहिले ही धनहीन हो, साथ धर्म की हानि।

उसकी जननी ही उसे, करती मन से ग्लानि।।7।।

-

किन्न मुंचसि दुःखार्तं मामद्यापि दरिद्रते।

ह्य एव हि महादुष्टे कृतः सामिमृतस्त्वया।।8।।

क्या नादारी आज भी मेरा साथ न छोड़ेगी? कल ही तो उसने मुझे अधमरा कर डाला था।

पद्य अनुवाद -

क्या मुझ से दारिद्र तू, आज न होगा दूर।

अर्धमृतक सम था किया, कल ही तो हे क्रूर।।8।।

-

तप्तशूलेषु सुष्वापः कदाचित् सम्भवत्यहो।

आकिंचन्ये च मर्त्यस्य सुखनिद्रा न संभवा।।9।।

जलते हुए शूलों के बीच में सो जाना भले ही संभव हो, पर निर्धनता की दशा में आँख का झपना भी असम्भव है।

पद्य अनुवाद -

तपे हुए भी शूल हों, उनपर सम्भव नींद।

निर्धन को सम्भव नहीं, आनी सुख की नींद।।9।।

-

उत्सृजन्ति निजप्राणान् यदि नो निर्धना नराः।

तर्ह्यन्येषां वृथा याति भक्तं पानंच सैन्धवम्।।10।।

गरीब लोग दरिद्रता से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए यदि उद्योग नहीं करते हैं तो इससे केवल दूसरों के भात, नमक पानी की ही मृत्यु होती है।

पद्य अनुवाद -

नहीं रंकता नाश को, रंक करें उद्योग।

अन्नादिक पर द्रव्य की, तो हत्या का योग।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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