कुरल काव्य भाग - 106 (भिक्षा)
तमिल भाषा का महान ग्रंथ
कुरल काव्य भाग - 106
भिक्षा
मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी
पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री
महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)
आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।
परिच्छेद: 106
याचना
याचतां तान् महाभागान् सन्ति ये साधनान्विताः।
अदानाय यदि व्याजं कुर्वते ते हि दोषिणः।।1।।
यदि तुम ऐसे साधन सम्पन्न व्यक्ति को देखते हो कि जो तुम्हें दान दे सकते हैं, तो तुम उनसे मांग सकते हो, यदि वे न देने का बहाना करते हैं, इसमें उनका दोष है तुम्हारा नहीं।
पद्य अनुवाद -
माँगो उनसे तात तुम, जिनका उत्तम कोष।
कभी बहाना वे करें, तो उनका ही दोष।।1।।
-
अपमानं विना भिक्षा प्राप्यते या सुदैवतः।
प्राप्तिकाले तु संप्राप्ता सा भिक्षा हर्षदायिनी।।2।।
यदि तुम बिना किसी तिरस्कार के जो पाना चाहते हो वह पा सको, तो माँगना आनन्ददायी होता है।
पद्य अनुवाद -
जो मिलती है भाग्यवश, बिना हुए अपमान।
वह ही भिक्षा चित्त को, देती हर्ष महान।।2।।
-
कर्तव्यं ये सुबुध्यन्ति व्याजाच्च न निषेधकाः।
याचना तेषु सश्लाघा भण्यते व्यावहारिकैः।।3।।
जो लोग अपने कर्तव्य को समझते हैं और सहायता न देने का झूठा बहाना नहीं करते, उनसे माँगना शोभनीय है।
पद्य अनुवाद -
जो जाने कर्तव्य को, नहीं बहानेबाज।
ऐसे नर से मांगना, रखता शोभा-साज।।3।।
-
स्वप्नकालेऽपि यत्पार्श्वे यांचा मोघा न जायते।
स्वदानमिव तद् यांचा वर्तते मानवर्द्धिनी।।4।।
जो मनुष्य स्वप्न में भी किसी की याचना को अमान्य नहीं करता, उस आदमी से माँगना उतना ही सम्मानपूर्ण है जितना कि स्वयं देना।
पद्य अनुवाद -
जहाँ न होती स्वप्न में, विफल कभी भी भीख।
कीर्ति बढ़े निज दान सम, लेकर उससे भीख।।4।।
-
दानशूरा जना नूनं बहवः सन्ति भूतले।
तत एव जनाः केचित् सन्ति भिक्षोपजीविनः।।5।।
यदि आदमी भीख को जीविका का साधन बनाकर निस्संकोच मांगते हैं, तो इसका कारण यह है कि संसार में ऐसे मनुष्य हैं जो मुक्तहस्त होकर दान देने से विमुख नहीं होते।
पद्य अनुवाद -
भिक्षा से ही जीविका, करते लोग अनेक।
कारण इसमें विश्व के, दानशूर ही एक।।5।।
-
अदानाय न ये क्षुद्रकृपणाः सन्ति सज्जनाः।
तेषां दर्शनमात्रेण दारिद्रयं याति संक्षयम्।।6।।
जिन सज्जनों में दान देने के लिए क्षुद्र कृपणता नहीं है, उनके दर्शन मात्र से ही दरिद्रता के सब दुःख दूर हो जाते हैं।
पद्य अनुवाद -
नहीं कृपण जो दान को, वे है धन्य धुरीण।
उनके दर्शन मात्र से, दुःस्थिति होती क्षीण।।6।।
-
ददते ये दयाप्राणा विनैव क्रोधभर्त्सने।
अर्थिनस्तान् विलोक्यैव मोदन्ते स्नेहवीक्षिताः।।7।।
जो सज्जन याचक को बिना झिड़क या क्रोध के दान देते हैं, उनसे मिलते ही याचक आनन्दित हो उठते हैं।
पद्य अनुवाद -
बिना झिड़क या क्रोध के, दें जो दया-निधान।
याचक उनको देख कर, पाते हर्ष महान।।7।।
-
याचका यदि नैव स्युर्दानधर्मप्रवर्तकाः।
काष्ठपुत्तलनृत्यं स्यात् तदा संसारजालकम्।।8।।
यदि दान धर्म प्रवर्तक याचक न हों, तो इस सारे संसार का अर्थ कठपुतली के नाच से अधिक नहीं होगा।
पद्य अनुवाद -
दानप्रवर्तक भिक्षुगण, जो न धरें अवतार।
कठपुतली का नृत्य ही, तो होवे संसार।।8।।
-
भिक्षुका यदि नैव स्युरहो अस्मिन्महीतले।
अवर्तिष्यत् कथं तर्हि कुत्रौदार्यस्य वैभवम्।।9।।
यदि इस संसार में कोई माँगने वाला न हो, तो उदारतापूर्वक दान देने की शान कहाँ रहेगी?
पद्य अनुवाद -
भिक्षुकगण भी छोड़ दें, भिक्षा का यदि काम।
तब वैभव औदार्य का, बसे कौन से धाम।।9।।
-
असामर्थ्यं यदि ब्रूते दाता दानस्य कर्मणि।
अर्थी नैव ततः क्रुध्येत् स्पष्टा चेत् सदृशी स्थितिः।।10।।
याचक को चाहिए कि यदि दाता देने में असमर्थता प्रगट करता है, तो उस पर क्रोध न करे, कारण कि उसकी आवश्यकताएं ही यह दिखाने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि दूसरे की स्थिति उस जैसी ही हो सकती है।
पद्य अनुवाद -
भिक्षुक करे न रोष तब, जब दाता असमर्थ।
कारण स्थिति एक सी, कहती नहीं समर्थ।।10।।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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