रानी चेलना की कहानी

रानी चेलना की कहानी

राजा चेटक वैशाली नगर के राजा थे। उनकी रानी का नाम सुभद्रा था। उनके 10 पुत्र व सात पुत्रियां थी, जिनमें से एक पुत्री का नाम चेलना था।

एक दिन राजा चेटक के दरबार में एक चित्रकार आया। वह अपनी कला में बहुत निपुण और बुद्धिमान था। उसने चेलना से बिना पूछे उसका चित्र बनाया और हुबहू वैसा ही चित्र बना दिया जैसे चेलना ही बैठी हो।

उस चित्रकार में एक गुण था कि गुप्त अंग में भी कोई निशान आदि हो, तो वह निशान भी चित्र में बना देता था।

चेलना का वह चित्र उसने मंदिर के बाहर वाली दीवार पर लगा दिया।

राजा चेटक को पता चल गया कि राजकुमारी चेलना का चित्र मंदिर में लगा है। वह चित्रकार पर बहुत क्रोधित हुआ और उसे नगर से जाने को कह दिया।

चित्रकार राजगिरी नगर में चला गया और उसने वहां के मंदिर में वह चित्र लगा दिया।

वहां के राजा श्रेणिक ने वह चित्र देखा तो वह उस पर मोहित हो गया और अपनी सुध-बुध खो बैठा। वह न खाता, न पीता, न उसका दरबार में मन लगता। वह बहुत ही कमज़ोर हो गया।

अभय कुमार जो उनका बड़ा पुत्र था, उसने राजा श्रेणिक से पूछा कि पिताजी! आपको क्या रोग हो गया है? मैं आपकी मदद करूंगा।

राजा श्रेणिक ने कहा कि मंदिर में जो चित्र लगा है, मैं उस स्त्री से विवाह करना चाहता हूं।

अभय कुमार ने कहा - पिताजी! आप चिंता न करें। मैं ज़रूर पता लगाता हूं कि वह कौन है।

अभय कुमार ने पता लगाया और वह शीघ्रता से वैशाली नगर में गया। वहां जाकर उसे पता लगा कि राजा चेटक जैन धर्म के दृढ़ अनुयायी हैं। वह उनकी पुत्री चेलना का चित्र था। वे अपनी पुत्री का विवाह जैन कुल में ही करेंगे, जबकि राजा श्रेणिक बौद्धधर्म को मानने वाले थे। यह सुन कर अभय कुमार वापस अपने नगर राजगिरी आ गया और राजा श्रेणिक से सारी बात कही।

कुछ दिनों बाद पूरी तैयारी के साथ वह वैशाली गया। उसने राजा श्रेणिक को पूर्ण विश्वास दिलाया कि वह पूरा काम करके ही वापस लौटेगा।

वैशाली नगर पहुंचकर अभय कुमार ने जैन दर्शन में शास्त्री पद ग्रहण किया। जैन मुनियों को आहार देना सीखा और कुछ चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया।

पूजा करना, प्रवचन करना और जैन धर्म पढा़ना भी शुरू कर दिया, जिससे सब को यह लगे कि वह और उसके पिता जैन धर्म को मानने वाले हैं। राजकुमारी चेलना और उनकी बहिन जेष्ठा उनसे बहुत ही प्रभावित हो गई। अभय कुमार ने अपने पिता का यौवन वाला सुंदर चित्र उनको दिखाया और वे भी राजा श्रेणिक पर मोहित हो गई।

फिर अभय कुमार ने एक दिन एक सुरंग तैयार करवाई जो कि वैशाली से राजगिरी तक जाती थी। एक दिन शाम को अभय कुमार ने एक चाल चली। उसने राजकुमारी चेलना और जेष्ठा को बताया कि वह राजगिरी जा रहा है, तो वे कहने लगी कि हम भी आपके साथ जाएंगे।

बहुत चालाकी से अभय कुमार ने जेष्ठा को कहा कि तुम महल से राजकुमारी चेलना के आभूषण ले आओ, फिर हम चलते हैं। जैसे ही जेष्ठा महल की ओर गई, अभय कुमार ने राजकुमारी चेलना को रथ पर बिठाकर उसका अपहरण कर लिया और सुरंग से होते हुए राजगिरी ले आया।

बाद में जब जेष्ठा वहाँ आई तो चेलना व अभय कुमार को वहां न पाकर उसे वैराग्य हो गया और उसने दीक्षा ले ली।

उधर राजकुमारी चेलना का राजगिरी में भव्य स्वागत हुआ। जब उसने राजा श्रेणिक को प्रत्यक्ष रूप में देखा, तो पहले तो वह उदास हो गई क्योंकि वह युवा नहीं वृद्ध था। फिर सोचा कि यह मेरे कर्म हैं और यह मेरा ही फैसला है। अब पछताने से क्या होगा?

फिर वह राजा श्रेणिक के महल में रहने लगी।

अभय कुमार ने राजा श्रेणिक से कहा कि अच्छा मुहूर्त देखकर जल्द से जल्द विवाह कर लो। राजा श्रेणिक ने ऐसा ही किया और उनका विवाह संपन्न हो गया।

कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा। फिर रानी को पता चला कि यह जैन धर्म को नहीं, बौद्ध धर्म को मानने वाला है।

एक दिन उनके महल में बौद्ध धर्म के भिक्षुक आए तो रानी चेलना ने सोचा कि उनकी परीक्षा लेनी चाहिए। उसने आग जला दी तो वे डर के मारे भाग गए।

राजा श्रेणिक को बहुत बुरा लगा क्योंकि वह बौद्ध धर्म को मानने वाला था।

कुछ दिनों बाद फिर से कुछ और भिक्षुक आए, तो राजा श्रेणिक ने रानी चेलना को अच्छी तरह समझा दिया कि ऐसा कुछ नहीं करना जिससे वे चले जाएं।

वे भिक्षुक आए तो रानी चेलना को सुनाने के लिए जोर-जोर से अपनी प्रशंसा करने लगे कि वे बहुत ध्यानी और ज्ञानी हैं।

भोजन के लिए आग्रह करने पर रानी चेलना ने भोजन में खीर बनाई और उसमें उन्हीं की चप्पलों के छोटे-छोटे टुकड़े करके खीर में डाल दिए। वे सब भिक्षुक भोजन खाकर प्रसन्न हो गए और वापिस जाने लगे तो उन्होंने देखा कि उनकी चप्पलें कहीं नहीं हैं।

उन्होंने राजा श्रेणिक से पूछा कि हमारी चप्पलें कहां गई?

सब जगह देखा लेकिन वे नहीं मिली।

रानी चेलना ने कहा कि आप तो ध्यानी ज्ञानी पुरुष हैं। ध्यान लगाकर पता लगाओ कि चप्पलें कहां हैं?

तब उन भिक्षुकों को बुरा लगा और उन्होंने कहा कि हमें नहीं पता।

तब रानी चेलना ने कहा कि वे सब तुम्हारे पेट में हैं।

भिक्षुकों ने तभी वमन कर दिया तो उसमें चप्पल के टुकड़े दिखाई दिए। वे सब बहुत क्रोधित हुए और राजा श्रेणिक का अपमान करके वहां से चले गए।

राजा ने मन ही मन में रानी चेलना से बदला लेने की ठानी। एक दिन जब जैन मुनि चौके में आए, तो राजा श्रेणिक ने रसोई घर में पहले से ही एक गड्ढा करवा कर उसमें हड्डी-मांस आदि भरवा दिया और ऊपर से ढक दिया।

रानी चेलना चतुर थी। उसने मुनिराज को पड़गाहा और उन मुनिराज को तीन अंगुली दिखाकर संकेत में पूछा कि क्या आपकी तीन गुप्ति हैं? तो मुनिराज न में सिर हिला कर विधि न मिलने के कारण वापिस चले गए।

दूसरे मुनिराज आए तो रानी ने उनसे दो उंगली दिखा कर पूछा कि क्या आपकी दो गुप्ति हैं, तो वे भी वापिस चले गए।

जैन मुनि आहार के समय अपने अवधिज्ञान का प्रयोग नहीं करते।

राजा श्रेणिक और रानी चेलना जब मुनिराज से पूछने लगे कि अपने आहार क्यों नहीं लिया तो उन्होंने कहा कि उन्हें विधि नहीं मिली, इसलिए उन्होंने आहार नहीं लिया।

महल में आकर चेलना ने जब गड्ढा खुदवा कर देखा तो उसे राजा के प्रपंच का पता चला। उसने गंदगी को साफ करवाया लेकिन राजा श्रेणिक को नहीं बताया कि उसे राजा की बदला लेने की भावना का पता चल चुका है।

एक दिन जंगल में एक मुनिराज ध्यान में बैठे थे, तो राजा श्रेणिक ने फिर उनसे बदला लेने की ठानी और उनके ऊपर जंगली कुत्ते छोड़ दिए, लेकिन वे कुत्ते भी मुनिराज के पास शांति से बैठकर वापिस आ गए।

तीसरी बार जब राजा श्रेणिक ने यशोधर मुनिराज को तप में लीन देखा, तो उसने मरा हुआ सर्प उनके गले में डाल दिया और तभी उन्हें सातवें नरक का 33 सागर की आयु का बंध हो गया। वे अपने महल में आ गए।

तीसरे दिन राजा श्रेणिक ने रानी चेलना को बताया कि मैंने दो दिन पहिले तुम्हारे मुनिराज के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया है, तो रानी चेलना को बहुत ज्यादा दुःख हुआ और उसने कहा कि यह आपने क्या कर दिया? आपने एक निर्ग्रंथ मुनि पर उपसर्ग कर दिया। जल्दी चलो।

राजा ने कहा कि वे तो वहां से कब के भाग गए होंगे।

तब रानी चेलना ने कहा कि वे मुनि वहीं मिलेंगे क्योंकि वे निर्ग्रंथ दिगंबर मुनि हैं। वे दोनों जल्दी-जल्दी वहां गए तो देखा कि चींटियों ने मुनिराज के सारे शरीर को छेद-छेद कर दिया है।

तभी रानी चेलना ने चीटियों को हटाने के लिए घी और शक्कर थोड़ी दूर पर रख दिया, जिससे सारी चीटियां उतर कर चली गई। फिर मुनिराज के शरीर पर उन्होंने चंदन का लेप लगाया। राजा श्रेणिक ने भी उनकी वैयावृत्ति की।

जब मुनिराज ने ध्यान के बाद आँखें खोली तो उन्होंने दोनों को एक जैसा आशीर्वाद दिया कि धर्म में वृद्धि हो।

राजा श्रेणिक को बहुत पश्चाताप हुआ और उन्होंने मुनिराज के चरणों में क्षमा याचना की।

मुनिराज ने राजा श्रेणिक को क्षमा कर दिया।

वे वापिस अपने महल में आ गए। मुनिराज के तप व क्षमाभाव से राजा श्रेणिक का हृदय परिवर्तन हुआ और वे भी जैन धर्म को मानने लगे। उनकी आत्मा की इतनी विशुद्धि बढ़ गई कि उसी समय महावीर भगवान के समवशरण में जाकर राजा श्रेणिक ने भगवान के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया और उससे उनकी नरक आयु 84 हजार वर्ष की रह गई और उन्होंने सातवें नरक से पहले नरक की आयु का बंध कर लिया। भविष्य में वे जैन धर्म के पहले तीर्थंकर महापद्म बनेंगे।

एक बार की बात है। दिसंबर का महीना था। जोरों की ठंड पड़ रही थी। राजा श्रेणिक और महारानी चेलना अपने महल में शयन कर रहे थे। रानी चेलना का हाथ रजाई से बाहर निकल आया, तो ठंड के कारण अकड़ गया। उसकी नींद टूट गई और उसने अपने हाथ को पुनः रजाई में खींच कर गर्म किया। अचानक उसके मुंह से निकला - ‘ओह! उनका क्या होता होगा?’

ये शब्द सम्राट श्रेणिक के हृदय में तीर की भांति चुभ गए। उनके मन में उथल-पुथल मच गई कि रानी सोते समय भी किसी परपुरुष का ध्यान कर रही है।

सूर्योदय होते ही सम्राट ने अभय कुमार को बुलाकर कहा - वत्स! रानी के महल को जला दो। मैं तीर्थंकर महावीर की वंदना करके वापस आता हूं।

सम्राट् इतना क्रोधित था कि अभय कुमार भी कुछ बोल नहीं सका और उसे स्वीकार करना ही पड़ा।

सम्राट श्रेणिक ने महावीर के समवशरण में पहुंच कर उनके दर्शन किए, तब तीर्थंकर महावीर ने रानी चेलना के सतीत्व की प्रशंसा की।

राजा श्रेणिक ने सुना तो वह अवाक् रह गया। आश्चर्य से वह अपने स्थान से उठ गया क्योंकि तीर्थंकर की वाणी तीन काल में भी असत्य नहीं हो सकती।

वह तुरंत वहां से चला गया। मार्ग में अभय कुमार मिला। राजा श्रेणिक ने पूछा कि क्या तुमने महल जला दिया?

अभय कुमार ने कहा - राजन्! आपका आदेश मिला था इसलिए वह काम तो होना ही था। देखिए महल से धुआँ निकल रहा है।

सहसा श्रेणिक के मुंह से निकला - ‘जा! जा! अभय कुमार।’

‘अच्छा, पिताजी! मैं जाता हूं।’

श्रेणिक ने कहा - बेटा! कहाँ जाता है?

अभय कुमार ने कहा - मैं भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा लेने जा रहा हूं। आप ने ही कहा था कि जिस दिन ‘जा’ शब्द निकलेगा, उस दिन दीक्षा ले लेना।

श्रेणिक ने कहा - बेटा! रानी चेलना के साथ अन्याय हो गया, अनर्थ हो गया। तीर्थंकर महावीर ने कहा है कि रानी चेलना शीलवती है।

अभय कुमार ने बताया कि मां ने मुझे बताया है कि एक दिन मैं और सम्राट तीर्थंकर महावीर की वंदना करके वापस आ रहे थे। तभी मार्ग में एक दिगंबर मुनि कायोत्सर्ग में खड़े दिखे थे। हमने उनके दर्शन किए और देखा कि शीत में उनकी रक्षा नहीं हो रही थी। वे घोर शीत उपसर्ग को समताभाव से सहन कर रहे थे। आज रात्रि में मेरा हाथ रजाई से बाहर निकला तो शीत से अकड़ गया। तब मुझे उन मुनिराज की स्मृति हो आई और मुंह से ऐसा निकल पड़ा कि उनका इस ठंड में क्या हाल होता होगा।

श्रेणिक ने कहा कि पुत्र! क्या उसने ऐसा कहा था?

‘हां, पिताजी!’

‘बेटा! अर्थ का अनर्थ हो गया। मैंने तो उसे संदेह भरी दृष्टि से देखा और महल जलाने को कह दिया, पर वह तो महासती थी।’

अभय कुमार ने कहा - ‘पिताजी! आप दुःख मत कीजिए। मां आनंद में हैं।’

ऐसा कहते हुए अभय कुमार ने अपने पिता को सारी घटना कह सुनाई कि आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैंने तो महल के दरवाज़े को आग लगाई है। उनका कक्ष सही सलामत है।

श्रेणिक ने कहा - बेटा! तेरे जैसा बुद्धिमान दुनिया में कोई नहीं है। कभी-कभी कानों से सुना और आँखों से देखा हुआ भी गलत हो सकता है। इसलिए सोच विचार कर निर्णय लेना चाहिए।

कानों से तो हो सुना, आंखों देखा हाल।

फिर भी मुख से न कहें, सज्जन की यह चाल।।

धन्य है सती चेलना, जिसने अपने पति को अधर्म से बचाया और सच्चे धर्म के मार्ग पर लगाया।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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