सती सुलोचना और जयकुमार की कहानी
सती सुलोचना और जयकुमार की कहानी
सती सुलोचना भरत क्षेत्र में बनारस नगर के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा की पुत्री थी। उसकी छोटी बहन लक्ष्मीमति थी। सुलोचना लक्ष्मी के समान सबको आनंदित करने वाली तथा कला रूपी गुणों के द्वारा चांदनी के समान सुशोभित हो रही थी।
जब सुलोचना विवाह के योग्य हुई तो राजा अकम्पन ने उसके स्वयंवर की सोची। राजा अकम्पन का भाई, जो अवधिज्ञानी विचित्रांगद नाम का देव था, स्वर्ग से आया था। उसने नगर के समीप स्वयंवर के लिए राजभवन बनाकर एक भव्य विशाल मंडप सजाया। सारे देश-विदेश से राजा और राजकुमार एकत्रित हो गए। सब विद्याधर और विद्यापति भी आ गए। सुलोचना भी पूरे सोलह श्रृंगार के साथ सुसज्जित होकर स्वयंवर मंडप में आ गई थी।
हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का पुत्र जयकुमार भी वहाँ आया हुआ था। जयकुमार गुणों की खान, रूपवान तथा महाप्रतापी था। उसके समान पूरे राज भवन में कोई नहीं था। वह जिनेंद्र भगवान का बहुत बड़ा उपासक था। राजकुमारी सुलोचना ने जय कुमार के गले में वरमाला डाल दी। इस बात से अन्य राजाओं का आपस में विरोध शुरू हो गया और वे सब आपस में युद्ध करने लगे। जयकुमार ने अर्ककीर्ति को हरा कर युद्ध जीत लिया। राजकुमार जय कुमार और सुलोचना का विवाह बड़ी धूमधाम से हो गया।
जयकुमार और रानी सुलोचना स्वभाव से सरल और संतोषी थे। जब सुलोचना और जयकुमार अयोध्या से लौट रहे थे, तब उन्हें रास्ते में गंगा व सरयू नदी मिली। वहां उन्होंने एक हाथी देखा, जिसका एक पैर कीचड़ में धंस गया था। जयकुमार के सेवकों ने एक सर्प के साथ समागम करते हुए एक सर्पिणी को मार दिया था। वह मर कर काली देवी हुई और उसने ही मगरमच्छ का रूप धर कर हाथी के पैर को पकड़ रखा था।
हाथी को डूबता देखकर सब लोग घबरा गए।
सुलोचना ने देखा तो उसने णमोकार मंत्र का स्मरण किया। उसने अरिहंत भगवान की भक्ति को अपने हृदय में धारण किया और हाथी पर उपसर्ग जानकर आहार पानी का त्याग कर दिया। इतने में गंगा के प्रताप कुंड में रहने वाली गंगा देवी का आसन कम्पायमान होने लगा। इससे गंगा देवी ने हाथी पर आए हुए उपसर्ग को जान लिया और अपने पर किए हुए उपकार को मानने वाली गंगा देवी ने शीघ्र ही आकर दुष्ट काली देवी को धमकाकर हाथी को उपसर्ग से मुक्ति दिलाई और उसे किनारे पर ले आई क्योंकि एक बार सुलोचना की सखी विन्ध्यश्री एक उपवन में क्रीड़ा कर रही थी। वहाँ पर उसे एक सांप ने काट लिया, तो सुलोचना ने पंच नमस्कार मंत्र का चिंतवन किया। पंच नमस्कार मंत्र का श्रवण करने के पुण्य के प्रताप से वह सखी मर कर गंगा देवी हुई। गंगा देवी ने अपनी विक्रिया से एक सुशोभित भवन बनवाया और उसमें मणिमय सिंहासन पर सुलोचना को बिठाकर उसकी पूजा की।
सुलोचना और जयकुमार दोनों ही धर्म में तल्लीन रहते थे और संसार से उदासीन रहते थे। एक बार दोनों प्राणी धर्म चर्चा करते हुए उद्यान में टहल रहे थे। टहलते टहलते उन्होंने आकाश मार्ग से एक विमान को उड़ते हुए देखा, जिसमें एक विद्याधर सपत्नीक कहीं जा रहा था। उन्हें देखते-देखते सुलोचना और विजय कुमार को अपने पूर्व भव की याद आ गई।
सुलोचना को कबूतर-कबूतरी का युगल देखने से जातिस्मरण हुआ कि वह पूर्व भव में हिरण्यवर्मा की पत्नी थी और हिरण्यवर्मा ही इस जन्म में जय कुमार था। जयकुमार को भी जातिस्मरण हुआ और उसे प्रभावती की याद आ गई जो इस जन्म में सुलोचना थी। इस प्रकार पति-पत्नी दोनों ने अनेक चिह्नों से स्पष्ट निर्णय किया कि वे दोनों पहले विद्याधर ही थे।
इतना स्मरण करने मात्र से उन्हें सारी विद्याएं प्राप्त हो गई। पुनः वे दोनों विद्याधर हो गए और विद्या के प्रभाव से लोक में विहार करने लगे। कभी जिनेंद्र भगवान की वंदना करके सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जाकर दोनों विहार करते, कभी कैलाश गिरी जाकर जिन मंदिरों की वंदना करते और भगवान आदिनाथ की पूजा करते। उनकी पूजा के स्वर सीधे स्वर्ग की ओर जाने लगे। जहां देवराज इन्द्र दरबार में देवताओं से विचार विमर्श कर रहे थे। सभी देव कैलाश गिरी की ओर देखने लगे।
इन्द्र ने सब देवताओं को बतलाया कि पूजा करने वाले दोनों, सती सुलोचना और जयकुमार, भू-लोक के महान अपरिग्रही श्रावक-श्राविका हैं। उनके आचरण में कहीं भी लोभ और अति संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। यह बात सुनकर एक देव रतिप्रभ के मन में उनकी परीक्षा लेने का विचार आया।
वह इन्द्र से आज्ञा ले कर सीधा कैलाश गिरी जा पहुंचा।
जयकुमार और सुलोचना प्रभु पूजन के बाद निकट ही एक उपवन में टहल रहे थे। सुलोचना भोजन कक्ष की व्यवस्था देखने लगी। देव ने एक सुंदर राजकुमारी सुरूपा का वेश धरकर अन्य सुंदर देवांगनाओं की भी संरचना कर डाली और उसके शील की परीक्षा करने लगा। उसने दोनों को लोभ और लालच दिया जैसे किसी ने थाली में सारा वैभव, कला, विद्या, सुख, वय, बल आदि का पुंज रख दिया हो।
जयकुमार बोले - हे सुन्दरी! मुझे नहीं चाहिए ऐसी जिंदगी। मेरे पास जो है, मैं उसे ही पूर्ण मानता हूं।
फिर वह सुंदरी बोली कि अच्छा तो मुझे अपने कक्ष में स्थान दे दीजिए।
तब जयकुमार ने कहा - मेरे एक कक्ष में माँ है और दूसरे कक्ष में बहिन है। आपको कौन सा कक्ष स्वीकार्य होगा?
सुरूपा शर्मिंदा हो गई और वह देव पुरुष रूप में आ गया।
जब रतिप्रभ देव पुरुष बनकर भी, अनेक प्रकार की चेष्टाओं के द्वारा सुलोचना के चित्त को चलायमान नहीं कर सका, तब वह रतिप्रभ देव सुलोचना और जयकुमार को अपने साथ हस्तिनापुर ले गया। वहां उसने दोनों का अभिषेक करके दिव्य वस्त्र आभूषणों को पहनाकर उनकी पूजा की। तत्पश्चात् वह सम्यकदृष्टि देव देवलोक को वापस चला गया।
उधर देवों द्वारा पूजित वह सुलोचना और जयकुमार सुख पूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बहुत अपरिग्रह को धारण कर अतिशय अनुरागी होने पर भी वे दोनों जब शील के प्रभाव से देवों द्वारा पूजित हुए, तब निर्ग्रन्थ व वीतरागी जीव क्या न प्राप्त कर सकेगा? वह तो मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है।
बाद में ऋषभदेव भगवान के समवशरण में आकर जयकुमार और सुलोचना ने जिनेंद्र भगवान का अमृत उपदेश सुनकर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र को प्राप्त किया। कैलाश गिरी से लौटकर जयकुमार ने अपने पुत्र अनंतवीर्य को राज्य दे दिया और छोटे भाई विजयकुमार के साथ जिनेंद्र देव के समीप दीक्षा ले ली।
उस समय जयकुमार के साथ 108 राजाओं ने दीक्षा ले ली। जय कुमार 71वें गणधर हो गए और मोक्ष को प्राप्त हुए। गणिनी आर्यिका बली और सुंदरी से सुलोचना ने दीक्षा ली और वह ग्यारह अंगों के ज्ञान की धारी हो गई। आर्यिका सुलोचना ने घोर तपस्या की और अनुत्तर विमान में देव हुई। वहां से चलकर मनुष्य पर्याय में आकर वह मोक्ष प्राप्त करेगी।
धन्य है सती सुलोचना और राजा जयकुमार!!
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
विनम्र निवेदन
यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।
धन्यवाद।
--
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
Comments
Post a Comment