रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 3)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 3)

रास्ते में चलते-चलते उन्होंने एक सघन वन में डेरा डाल दिया। एक बरगद के पेड़ के नीचे राजकुमार के ठहरने की व्यवस्था कर दी और सब लोग भोजन आदि करके सो गए।

उसी बरगद के पेड़ में गोमुख नाम का यक्ष और यक्षिणी चक्रेश्वरी रहते थे। उन्होंने जब राजकुमार चित्रसेन को देखा तो वे आपस में बोले कि यह तो अपने माता-पिता को छोड़कर चला गया था। तब उसके वियोग में इसकी माता को बहुत दुख हुआ और उसकी मृत्यु हो गई। राजा वीरसेन ने विमला नाम की स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया है। उनका एक पुत्र भी है, जिसका नाम गुणसेन है। विमला ने अपने छल-कपट से महाराज को अपने वश में कर लिया और अपने पुत्र गुणसेन को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया। ऐसी महाराज से प्रतिज्ञा करा ली थी।

विमला को इतने ही में संतोष न हुआ। उसे संदेह था कि प्रजा चित्रसेन का पक्ष लेगी क्योंकि ज्येष्ठ पुत्र तो वही है। इसलिए महाराज को चित्रसेन को मारने पर भी राजी कर लिया। उसके मारने के चार उपाय किए हैं -

(1) घोड़े पर से गिरा कर,

(2) नगर का दरवाजा गिराकर,

(3) विष के लड्डू खिलाकर और फिर भी न मरे तो

(4) सर्प से डसवा कर चित्रसेन के प्राणों का घात करना है।

अगर इन चारों उपाय से चित्रसेन बच गया, तो अवश्य ही राजा का मुकुट मस्तक पर पहनेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

इन दोनों की बात चित्रसेन ने तो नहीं सुनी, उसके मित्र रत्नसार, जो पेड़ के नीचे राजकुमार की रक्षा के लिए खड़ा था, उसने सुन ली। यक्ष और यक्षिणी ने यह भी कहा कि यदि किसी ने हमारी बात सुन ली और चित्रसेन को बता दी, तो वह पत्थर का हो जाएगा।

प्रातः उठकर वे बसंतपुर के निकट जा पहुंचे।

महाराज वीरसेन को पुत्र के आगमन की ख़बर मिली, तो उसने बड़ी भारी संख्या में सेना के साथ आकर पुत्र का स्वागत करने का दिखावा किया और साथ में वह एक चपल घोड़ा भी लाया, जिस पर बैठकर चित्रसेन के प्राण लेने की बात हुई थी।

चित्रसेन पिता को देखकर नतमस्तक हुआ, लेकिन वीरसेन ने माया और कपट से पुत्र को उसे चपल घोड़े पर चढ़ने को कहा।

रत्नसार पहले ही तैयार था। उसने घोड़े को पहले ही बदल दिया था और दूसरा घोड़ा लाकर सामने खड़ा कर दिया। राजकुमार उस पर बैठकर गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ा। वीरसेन का पहला प्रयत्न निष्फल हो गया।

राजकुमार जब उस नगर के द्वार पर आया तो दूसरा उपाय उसे दरवाजा गिरा कर मारने का था। ठीक उस दरवाजे के पास आने पर रत्नसार ने घोड़े को एक चाबुक लगाया और घोड़ा इस सफाई से निकल गया कि जिससे वह द्वार कुमार पर न गिर सका। इस बार भी कुमार की रक्षा हो गई।

पद्मावती के साथ राजकुमार राजमहल में आया। महारानी विमला ने दोनों का स्वागत तो किया लेकिन विष के लड्डू भी तैयार कर लिए। जब सब भोजन के लिए बैठे तो महारानी ने विष के लड्डू कुमार की थाली में रख दिए, लेकिन रत्नसार को पता था तो उसने बड़ी चतुराई से लड्डू बदल दिए।

राजकुमार ने उसे देख लिया, पर वह चुप रहा। सबने बहुत आनंदपूर्वक भोजन किया।

इधर जब महारानी विमला ने देखा कि चित्रसेन विष के लड्डू खाकर भी नहीं मरा, तो वह समझ गई कि यह काम मित्र रत्नसार का है।

इधर वीरसेन को अपने इस कुकृत्य पर बहुत ही पश्चाताप हुआ और उन्हें वैराग्य हो गया।

कुछ समय बाद उस नगर में भगवान महावीर का शुभ आगमन हुआ। उनके आने मात्र से 6 ऋतुओं के फल-फूल एक साथ उत्पन्न हो गए। सूखे तालाब निर्मल जल से भर गए और उनमें कमल खिल गए। सब ओर अतिशय होने लगे। भगवान महावीर के समवशरण में विराजमान होकर सब जीव भगवान की दिव्य ध्वनि सुनकर बहुत आनंदित हुए।

महाराजा वीरसेन ने मंत्रियों को बुलाया और अपना विचार दीक्षा लेने का बताया। चित्रसेन का राज्याभिषेक बहुत धूमधाम से हो गया। राजा, महारानी विमला से मिलने गए, तो विमला ने कहा कि मेरे पुत्र गुणसेन को राज्य न मिलने से उसके चित्त में बहुत वैराग्य आ गया है। मैं अनुचित मांग कर रही थी। उसने कहा कि वह भी दीक्षा लेगी। उसे बहुत समझाया लेकिन वह नहीं मानी। अंत में राजा और रानी दोनों ने महावीर भगवान के समवशरण में जाकर जिन दीक्षा ले ली और दुद्धर तप किया।

इधर चित्रसेन अपनी प्रजा का भली-भांति पालन करने लगा। रत्नसार को प्रधानमंत्री बनाया गया। एक समय रत्नसार के मन में विचार आया कि चित्रसेन के पुण्य उदय से इसकी मृत्यु के तीन कारण तो निष्फल हो गए हैं। अब भी एक कारण बाकी है और उसकी मुझे बहुत चिंता है।

महाराज चित्रसेन और महारानी पद्मावती ने दीन-अनाथों को सहायता दी। नए जिन मंदिर बनवाए तथा प्राचीन जैन मंदिरों का उद्धार करवाया। दोनों को जिन पूजा, शास्त्रों का अभ्यास, सुपात्रों को दान देना, गुणी पुरुषों में अनुराग करना इत्यादि सद्गुणों से बहुत प्रेम था। रत्नसार में भी ये सभी गुण थे।

एक दिन की बात है। महाराज और महारानी रात को शयन कर रहे थे, तो रत्नसार ने एक काले सांप को सांकल के पास देखा। रत्नसार को यक्ष की चौथी बात याद आ गई। उसने तत्काल ही सर्प को तलवार से काट डाला। लहू की कुछ बंदे महारानी की जांघ पर पड़ गई थी, इसलिए रत्नसार कपड़े से उन बूंदों को पोंछने लगा। इतने में महाराज भी जाग पड़े और उन्होंने देख लिया।

चित्रसेन ने पूछा - रत्नसार! यह क्या बात है?

रत्नसार दुविधा में पड़ गया कि यदि सत्य बताऊंगा तो सारी घटनाएं बतानी पड़ेगी और मैं पत्थर का हो जाऊंगा। यदि मैं झूठ बोलूंगा तो यह नीति के विरुद्ध होगा। कुछ सोच-विचार कर रत्नसार ने साहस करके महाराज चित्रसेन को सब कुछ प्रसंग वश सत्य-सत्य बतला दिया।

जैसे-जैसे रत्नसार बता रहा था, वैसे-वैसे वह पत्थर का होता जा रहा था। पूरी बात बताते ही रत्नसार पाषाण का हो गया और जमीन पर गिर पड़ा। जो यक्ष ने कहा था, वह सत्य सिद्ध हो गया।

रत्नसार को पाषाण का देखकर चित्रसेन को बहुत पश्चाताप हुआ और उसके वियोग में उसने भी प्राण त्यागने की बात सोची, लेकिन महारानी पद्मावती बहुत समझदार थी। उसने चित्रसेन को समझाया कि प्राण त्यागने से आपकी कीर्ति में कलंक लगेगा। आत्महत्या अनुचित काम है। रत्नसार का प्राणान्त नहीं हुआ है। उस यश के श्राप से ही इसकी ऐसी दशा हुई है। एक काम कीजिए। धर्मशाला में दान देने की व्यवस्था कीजिए। जितने भी याचक आएं, सबको मनचाहा दान दीजिए। उसने सोचा कि कोई मंत्र-तंत्र, जादू-टोना जानने वाला कोई साधु संन्यासी आ जाए, जो रत्नसार की दशा सुधार दे।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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