रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चित्रसेन ने ऐसा ही किया, लेकिन कोई भी सफलता प्राप्त नहीं हुई।

दोनों बहुत परेशान हो गए। चित्रसेन की चिंता दिनों दिन बढ़ने लगी। सोच-विचार करके वह उस वटवृक्ष के नीचे पहुंचा, जहां वह यक्ष रहता था। रास्ते में सफ़र से थका हुआ तो था ही, आते ही उसके नीचे सो गया।

उस यक्षिणी ने यक्ष से पूछा - हे नाथ! यह पुरुष कौन है?

यक्ष ने कहा - यह वही राजकुमार है, जो उस दिन अपनी प्रिय पत्नी और अपने मित्र रत्नसार के साथ यहाँ ठहरा था और अब वह अपने मित्र के वियोग से दुःखी है।

यक्षिणी बोली - इसकी आपत्ति का कोई उपाय बताएं।

यक्ष ने विचार करके कहा - हां! एक उपाय है। यदि कोई पतिव्रता नारी अपने बच्चे को गोद में लेकर रत्नसार के पत्थर के संपूर्ण शरीर का स्पर्श करे, तो रत्नसार फिर से जीवित हो जाएगा। वह पत्थर का नहीं रहेगा।

चित्रसेन ने पेड़ के नीचे लेटे-लेटे यक्ष और यक्षिणी की बात बहुत ध्यान से सुन ली। उसे आनंद हुआ कि वह इस उपाय से अपने मित्र के पुनः दर्शन कर पायेगा।

पद्मावती महारानी कुछ ही दिनों में गर्भवती हो गई। चित्रसेन प्रतिदिन खूब दान देता, धर्म में लीन रहता और अच्छे-अच्छे कामों में समय बिताता। कुछ ही दिनों में उनके यहां एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म की खुशी में बहुत बड़े-बड़े उत्सव चित्रसेन ने कराए। जिन मंदिरों में महा पूजा करवाई। पुत्र का नामकरण करवाया और उसका नाम धर्मसेन रखा गया।

एक दिन चित्रसेन ने पद्मावती को यक्ष और यक्षिणी की बात सुनाई और कहा कि आज तुम्हारे शील की परीक्षा होगी। यदि तुम सच्ची पतिव्रता हो, तो मेरा प्रिय मित्र रत्नसार तुम्हारे स्पर्श से अच्छा हो जाएगा।

पद्मावती ने कहा कि मैं अपने शील की परीक्षा देने को हर समय तैयार हूं।

चित्रसेन ने सब लोगों को उपस्थित किया और रत्नसार की पाषाण की मूर्ति दिखलाई।

चित्रसेन ने कहा - पद्मावती! समय आ गया है। अपनी शील की परीक्षा दो।

महारानी तो पहले से तैयार थी। इतनी बात सुनते ही महारानी पहले जिन मंदिर में गई। स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर शुद्ध मन, वचन और काया से जिनेंद्र भगवान की पूजा के बाद में सभा में अपने पुत्र धर्मसेन को गोदी में लेकर आई। महारानी ने पांच परमेष्ठी का ध्यान किया और पाषाण मूर्ति को हाथ लगाया। हाथ लगाते ही वह मूर्ति रत्नसार के रूप में बदल गई।

सबने मिलकर महारानी की जय-जयकार की। उसके पतिव्रता और शीलवती होने की बहुत महिमा गाई और कहा कि यह नारी नहीं, साक्षात् देवी है।

इस प्रकार महाराज चित्रसेन को अपना मित्र रत्नसार मिल गया। उसे गले लगा कर चित्रसेन ने अपने किए पर पश्चाताप किया। इस प्रकार महाराजा, महारानी और रत्नसार तीनों राजकाज संभालते तथा धर्म में लीन रहकर अपने दिन आनंद से बिताते थे।

एक दिन उनके यहां एक मुनिराज ‘दमवर’ का शुभ आगमन हुआ। वह केवलज्ञान के धारी थे। सब लोगों ने मुनिराज के धर्म उपदेश को सुना। राजा चित्रसेन और रानी पद्मावती के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अपने पुत्र धर्मसेन का राजतिलक करके उन्होंने राज्य सौंप दिया। मित्र रत्नसार ने दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प किया।

महाराज चित्रसेन और रानी पद्मावती ने दीक्षा लेकर घोर तप किया। तप करके वे दोनों अच्युत स्वर्ग में गए। वहां से च्युत होकर मनुष्य भव धारण कर मुक्ति को प्राप्त करेंगे।

इस कथा को सुनकर समस्त लोगों को असीम हर्ष हुआ और सबने शील धर्म का पालन करने का संकल्प लिया।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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