महासती शीलवती की कहानी (भाग - 2)
महासती शीलवती की कहानी (भाग - 2)
शीलवती ने अपने ससुर को सारी बातों का रहस्य बताना आरम्भ किया।
‘पिताजी! सबसे पहले उस मूंग के हरे-भरे खेत को देखकर आपने उस खेत के मालिक को मालामाल होने की बात कही, किन्तु उस खेत पर किसी अन्य श्रेष्ठी की बंधक-पट्टी लगी थी। उस खेत का मालिक किसान तो बेचारा इतना कर्ज़दार था कि सारी मूंग की फसल बेच देने पर भी वह तो भूखा का भूखा ही रहने वाला था।
दूसरी बात, उस बाणों से घायल क्षत्रिय को देखकर आपने कहा, यह तो कोई लड़ाकू वीर पुरुष है, किन्तु उस के सभी घाव उसकी पीठ पर थे, जो उसकी वीरता के नहीं, अपितु उसकी कायरता के चिह्न थे। इसलिए मैंने उसे कायर कहा था।
तीसरी बात, आपने नदी में जूते उतार कर पैर रखा। वह नदी बहुत गहरी थी और यदि उस नदी में रहने वाले जहरीले जीव-जन्तु आपके पैर में काट लेते, तो आपको कष्ट हो सकता था। इसीलिए मैंने आपको नदी में जूते पहन कर चलने की सलाह दी थी।
चौथी बात, जिस मंदिर में आपने आश्रय लेना चाहा था, उस मंदिर में जगह-जगह जुए का सामान और मदिरा की बोतलें पड़ी हुई थी। यह देख कर ही मैंने उसे नरक कहा था, क्योंकि वह तो बदमाशों का अड्डा था।
पाँचवीं बात, नगर को मैंने श्मशान इसलिए कहा था, क्योंकि वहाँ कोई भी हमारा परिचित नहीं था और पास के गाँव में रुकने को इसलिए आग्रह किया था, क्योंकि वहां मेरे मामाजी रहते थे। उन्होंने हमारा स्वागत भी किया और रात भर हम निश्चिन्त होकर सो सके।’
सेठ ने कहा - ‘बहू! सचमुच तुम्हारी हर बात में बहुत रहस्य छिपा था। सूक्ष्म अवलोकन करने और दूर की बात सोचने में तो तुमने कमाल ही कर दिया।’
शीलवती ने कहा - ‘पिताजी! यहाँ भी आपने वृक्ष की छाया में बैठने को कहा, किन्तु मैं गाड़ी की छाया में इसलिए बैठी, क्योंकि वहाँ वृक्ष के ऊपर कौआ बैठा था और पता नहीं, वह कब हम पर बीट कर दे?’
सेठ बहू की समझदारी से बहुत प्रभावित हुआ और उसे धन्यवाद दिया। उसने अपने क्रोधित व्यवहार के लिए उससे क्षमा मांगी।
सेठ ने कहा - ‘बहूरानी! तुम तो मेरे घर की लक्ष्मी हो। मैं तुम्हें अपने घर से निकाल कर अपनी मूर्खता का परिचय नहीं दूंगा। चलो! अब वापिस अपने घर चलो।’
सेठ के आग्रह पर शीलवती पुनः अपने घर लौट आई। अजितसेन भी उसकी बुद्धिमानी की बातें जानकर चकित रह गया। उसके हृदय में शीलवती के प्रति अपार स्नेह का स्रोत उमड़ पड़ा। शीलवती की बुद्धिमानी का आश्रय पाकर सेठ के घर में लक्ष्मी में वृद्धि होने लगी। पूरे नगर व राजसभा में उसका सम्मान बढ़ने लगा।
अजितसेन भी राजा के स्नेह व विश्वास का पात्र बन गया। प्रत्येक राजकार्य में उसकी सलाह ली जाने लगी।
एक बार अजितसेन को राजा के साथ युद्ध के लिए जाना पड़ा। विदाई के समय शीलवती ने अपने पति को एक फूल दिया और कहा - ‘पतिदेव! यह फूल अपने पास रखियेगा। जब तक मेरा शील धर्म अखण्ड रहेगा, तब तक यह फूल यूँ ही खिला रहेगा।’
युद्ध के मैदान में भी अजितसेन प्रतिदिन उस फूल को देखता रहता।
एक बार राजा ने पूछा - ‘क्या बात है? तुमने इस फूल को अपने पास क्यों रखा हुआ है और यह सदा खिला हुआ कैसे रहता है?’
राजा के आग्रह करने पर अजितसेन ने कहा - ‘महाराज! यह फूल तब तक यूँ ही खिला रहेगा, जब तक मेरी पत्नी अपने शील धर्म में अडिग रहेगी।’
राजा ने मज़ाक करते हुए कहा - ‘हँ... हँ...। स्त्रियाँ अपने पति को इसी तरह मूर्ख बनाए रखती हैं। मैं तुम्हें समय आने पर बताऊँगा।’
राजा ने चुपचाप अपने चार विश्वस्त व्यक्तियों को अजितसेन के घर भेजा और वे राजा के आदेशानुसार शीलवती का शील भंग करने का प्रयत्न करने लगे। शीलवती ने उन्हें 2-3 बार फटकारा, पर जब वे अपनी करतूतों से बाज नहीं आए, तो शीलवती ने ‘शठे शाठ्यं समाचरेत्’ की नीति अपनाई।
उसने चारों व्यक्तियों को अपने घर आने का निमंत्रण दिया। रात्रि के एक-एक प्रहर में उसने चारों के आने का समय निश्चित कर दिया। उसने महल के प्रवेश-द्वार के सामने एक बहुत बड़ा गड्ढा खुदवाया और उस गड्ढे पर सुन्दर-सा गलीचा बिछवा दिया। उस गलीचे पर बिना बुना हुआ एक पलंग रखवा दिया। पलंग पर एक मखमली गलीचा बिछाया गया। शीलवती द्वार पर खड़ी हो गई और उनके आने की प्रतीक्षा करने लगी।
जैसे ही उनमें से पहला व्यक्ति आया, तो शीलवती ने उसका हंसकर स्वागत किया और उससे पलंग पर बैठने का आग्रह करने लगी। वह व्यक्ति जैसे ही पलंग पर बैठा, तो धड़ाम से उस गड्ढे में गिर पड़ा। इसी प्रकार दूसरे, तीसरे और चौथे व्यक्ति का भी यही हाल हुआ। कुछ दिन उन्हें भूखा-प्यासा रखा और फिर उन्हें एक बोरे में बंद कर दिया। वे बेचारे चारों व्यक्ति नरक जैसी यातनाएं भोगने लगे।
कुछ समय बाद अजितसेन युद्ध जीतकर राजा के साथ वापिस लौटा। शीलवती ने उसे उन चारों व्यक्तियों के बारे में सारा हाल कह सुनाया।
अजितसेन को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने बोरा खोल कर देखा, तो चारों की बहुत विचित्र दशा हो रही थी। उनकी दाढ़ी, मूंछे और जटाएं बढ़ी हुई थी। भूख-प्यास के मारे वे अधमरे हो गए थे। वे एकदम काले और कुरूप दिखने लगे थे।
शीलवती के परामर्श से उन्होंने राजा को सपरिवार अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया। उन चारों व्यक्तियों के शरीर पर चन्दन का लेप किया, सिर के बालों में सुगन्धित फूल गूंथे और उन्हें ऐसा सजा दिया कि वे प्रत्यक्ष रूप से यक्ष जैसे प्रतीत होने लगे।
शीलवती ने उन व्यक्तियों को आदेश दिया कि तुम चारों राजपरिवार को भोजन कराओगे, लेकिन खबरदार! एक अक्षर भी मुँह से बोले, तो याद रखना।
वे चारों व्यक्ति राजपरिवार की आवभगत करने लगे। इनका विचित्र रूप देखकर राजपरिवार के लोग इनसे तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे, पर उनके मुख पर तो ताले लगे थे। वे बेचारे बोलते भी तो क्या?
राजा ने चकित होकर अजितसेन से पूछा - ‘अजितसेन! यह बताओ कि तुम्हें ये अद्भुत यक्ष कहाँ से प्राप्त हुए हैं? ये तो कुछ बोलते भी नहीं हैं। बहुत ही शांत और मौनी यक्ष हैं।’
अजितसेन ने उन चारों व्यक्तियों को बुलाकर राजा के सामने खड़ा कर दिया। वे चारों शर्म के मारे भूमि में धंसे जा रहे थे। राजा उनसे उनके बारे में पूछता रहा, पर उन्होंने चूँ भी नहीं किया। राजा की प्रबल जिज्ञासा देखकर अजितसेन ने हंस कर कहा - ‘महाराज! आपके वे चारों विश्वसनीय मित्र कहाँ हैं?’
राजा को याद आया कि कहीं वे ही तो यहाँ आकर नहीं फंसे हैं?
राजा ने ध्यान से देखा, तो सारा भेद खुल गया। अजितसेन ने उनके ही मुख से सारी घटना सुनवाई। राजा और उनके परिवारजन सभी चकित थे। सभी शीलवती के अखण्ड शील की प्रशंसा करने लगे और उसकी बुद्धिमानी की दाद देने लगे।
राजा ने स्वयं शीलवती से क्षमा मांगी - ‘बहिन! तुम्हारे शील की परीक्षा लेने के लिए मैंने ही यह दुष्चक्र चलाया था। मुझे क्षमा करो। आज से तुम मेरी धर्म बहिन हो।’ ऐसा कहकर राजा शीलवती के चरण छूने लगे।
शीलवती ने राजा को भाई मान कर उनके मस्तक पर तिलक लगाया। राजा ने शीलवती का बहुत आदर-सत्कार और सम्मान किया। प्रत्येक नगरवासी के मुख से उसके शील की, समझदारी, चतुराई व बुद्धिमानी की प्रशंसा की बातें ही गूंज रही थी।
धन्य है सती शीलवती और उनकी बुद्धिमानी!!!
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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