एक लोटा पानी (भाग - 2)
एक लोटा पानी (भाग - 2)
पंचमी का सवेरा हुआ। परसराम ने ज्यों ही घोड़े पर चढ़ना चाहा, त्यों ही उसे एक छींक आई। एक साथी का नाम था रहीम। वह बी.ए. पास था। पेशावर का रहने वाला था। घोड़े की सवारी में और निशाना लगाने में वह बहुत माहिर था। रहीम ने परसराम को टोकते हुए कहा - ‘कहां जा रहे हैं आप?’
परसराम - ‘सेखूपुर, चंपा का कन्यादान देने। तुमको तो सब हाल मालूम करा दिया था। रोको मत। मैं रुक नहीं सकता।’
रहीम - ‘छींक आई है।’
परसराम - ‘मुसलमान होकर भी छींक को मानते हो?’
रहीम - ‘बात यह है कि यंग साहब अपने तीस सिपाहियों के साथ उधर ही गए हैं। उन लोगों ने सौदागरों का स्वांग बनाया है। मगर वे मेरी नज़र को धोखा नहीं दे सकते।’
परसराम - ‘घूमने दो। क्या करेगा यंग साहब?’
रहीम - मालूम होता है कि मूर्ख बुढ़िया ने आपसे मिलने का हाल अपने गाँव में बयां कर दिया है। पुलिस को आपके आने का हाल मालूम हो गया है। तभी यंग साहब ने मौका देखकर चढ़ाई की है।’
परसराम - ‘संभव है, तुम्हारा अनुमान सही हो, लेकिन इस डर से मैं अपने वचन को नहीं तोड़ सकता। ‘एक लोटा पानी’ से तो उऋण होना ही है।’
रहीम - ‘अच्छा! तो मैं भी साथ चलता हूं। जो वक्त पर साथ दे, वही साथी है।’
परसराम - ‘तुम्हारी क्या जरूरत है? तुम यहीं रहो।’
रहीम - ‘नहीं, मैं आपको अकेले नहीं जाने दूंगा। नमक हरामी नहीं करूंगा। आपकी जान जाएगी, तो पहले मेरी जान जाएगी।’
दोनों घोड़े पर सवार होकर सेखूपुर की ओर चल दिए। वे उस समय बिहारी अहीर के दरवाजे पर पहुंचे, जब चंपा के फेरे पड़ गए थे और कन्यादान का समय आ गया था। अपने घोड़े की बागडोर रहीम को पकड़ा कर परसराम उतर पड़े और घर में घुस गए। पांच मोहरों से परसराम ने सबसे पहले चंपा का कन्यादान दिया और वह बाहर जाने लगे।
गाँव वालों ने जान लिया कि इसी व्यक्ति ने पांच गाड़ियां सामान भेजा था। श्रद्धा के मारे उन लोगों ने परसराम को घेर लिया। मारे खुशी के बुढ़िया की बोलती बंद थी।
एक आदमी बोला - ‘वाह, मालिक! बिना जलपान किए कहां जाते हो?’
दूसरा आदमी लोटा लिए चरण धोने का उपाय करने लगा। तीसरा आदमी परसराम को बैठाने के लिए अपना साफा धरती पर बिछाने लगा। चौथा आदमी दौड़कर एक दोने में मिठाइयां भर लाया।
परसराम ने कहा - ‘कैसे पागल हो तुम लोग? जिस कन्या का कन्यादान दिया है, उसी का भोजन मैं कैसे करूंगा?’
इतना कह कर वह घर से बाहर आ गए। घोड़े पर चढ़ते-चढ़ते परसराम ने देखा कि यंग साहब ने दलबल सहित उनको घेर लिया है। परसराम ने उनको ललकार कर कहा - ‘गाँव के बाहर आकर मरदूमी दिखाओ।’ इसके बाद रहीम के साथ परसराम ने घोड़े को ऐड लगाई और गाँव से बाहर हो गए। यंग साहब ने पीछा किया। सब लोग घोड़ों पर सवार थे। तड़ातड़ गोलियां छूटने लगी। वे दोनों भी फायर करते जा रहे थे। परसराम और रहीम के अचूक निशानों ने पांच सिपाही मार डाले।
परसराम को भागने का अवसर देने के लिए रहीम ने अपना घोड़ा पीछे लौटाया और वह सिपाहियों के साथ जूझने लगा। सब लोगों ने उसे घेर लिया और दनादन गोलियां छूटने लगी। तीन सिपाही रहीम ने मौत के घाट उतार दिए। उसके शरीर में भी चार गोलियां घुस चुकी थी। एक गोली घोड़े को लगी। घोड़ा और घुडसवार दोनों ही मर कर गिर पड़े। तब तक परसराम एक कोस आगे निकल गए थे। यंग साहब ने रहीम को वहीं छोड़ा और परसराम का पीछा किया। तीन कोस के बाद परसराम दिखाई पड़े।
साहब की गोली से परसराम का घोड़ा घायल होकर गिर पड़ा। परसराम पैदल चलने लगे। आगे एक नाला था, 5-6 गज चौड़ा और तीस हाथ गहरा। बरसाती पानी ने उस नाले को खंदक का रूप दे दिया था। परसराम ने कूद कर उसे पार करना चाहा परंतु पैर फिसल गया और वह खंदक में गिर पड़े।
किनारे पर यंग साहब आकर खड़े हो गए। नीचे अंधेरा था। साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ता था। ज्यों ही साहब ने नीचे झांका, त्यों ही परसराम ने गोली छोड़ दी। विक्टोरिया के इकबाल से साहब तो बच गए, मगर उनका टोप उड़ गया। सिपाहियों ने गोली छोड़ी। परसराम एक किनारे छुप गए। उनका फायर खाली गया।
सबने कहा - ‘तीस हाथ गहरे गड्ढे में गिरा है, तो भी निशाना मार रहा है। शाबाश! बहादुर शाबाश!!’
तब तक परसराम ने आवाज के निशाने पर एक गोली छोड़ दी। साहब के पास एक सिपाही खड़ा था। उसकी खोपड़ी उड़ गई।
साहब ने कहा - ‘हमारे 9 आदमी काम आ चुके हैं, मगर डाकू का एक ही आदमी मरा।’
एक सिपाही था राजपूत। उसने आगे बढ़कर कहा - ‘मिट्टी गिरा कर डाकू को यहीं दबा देना चाहिए।’
आवाज का निशाना साध कर परसराम ने गोली छोड़ी। राजपूत बेचारा मर कर गिर गया।
साहब ने कहा - ‘वेल, परसराम! तुम बाहर आओ। हम तुम पर बहुत खुश हैं। तुम एक बहादुर और बात के धनी आदमी हो। हम तुम्हारे निशाने पर खुश हैं।’
परसराम ने जवाब दिया - ‘मैं अपना वचन पूरा कर चुका हूँ। मैं ‘एक लोटा पानी’ से उऋण हो गया। अब मरने का डर नहीं है।’
साहब - ‘अगर तुम डाका डालना बंद करने की कसम खाओ तो हम तुमको वायसराय से कह कर छुड़ा लेगा। इत्मिनान करो और बाहर आओ। तुम भी बात का धनी है, हम भी बात का धनी है। आज से तुम हमारा दोस्त हुआ।’
परसराम बाहर निकल आया और आत्मसमर्पण कर दिया। यंग साहब ने उनको गिरफ्तार कर लिया और आगरा ले गए। कुछ दिन मुकदमा चला, मगर यंग साहब ने परसराम को साफ बरी करवा दिया। परसराम ने समझ लिया कि अच्छा उद्देश्य होने पर भी डकैती आखिर डकैती ही थी। यह बहुत बुरी चीज है। उसका समर्थन हो ही नहीं सकता। अतः उस काम को छोड़ दिया। वह साधु हो गया और अपने साथियों को नेकी का जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया।
परसराम ने हरिद्वार में जाकर पाँच साल तक घोर तपस्या की और सन् 1935 ईस्वी में गंगा जी की बीच की धारा में खड़े-खड़े शरीर त्याग दिया। परसराम ने यह दिखला दिया कि विपत्ति को देखकर भी विचलित न होकर अपने वचन का पालन करना चाहिए।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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