अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (3)
अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (3)
(आचार्य माघनन्दीकृत)
श्रीपीठक्लृप्ते विशदाक्षतौघैः,
श्रीप्रस्तरे पूर्ण-शशांककल्पे।
श्रीवर्तके चन्द्र मसीतिवार्तां,
सत्यापयन्तीं श्रियमालिखामि।।
श्री - शोभायमान
पीठ क्लृप्ते - सिंहासन पर
विशद-विशाल
अक्षतौघैः- धवल मणियों से युक्त
श्री प्रस्तरे-शोभायमान शिला पर
पूर्ण-शशांक- पूर्णिमा के चन्द्रमा की
कल्पे-कल्पना करने वाले
श्री वर्तके- शोभा को बढ़ाने वाला
चन्द्रम् - चन्द्रमा ही
असि- है
इति - इस प्रकार की
वार्तां- वार्ता के
सत्या-सत्य को
पयन्तीं- स्थापित करने के लिए
श्रियम्- श्री कार
लिखामि- लिखता हूँ
शोभायमान सिंहासन पर, जो विशाल धवल मणियों से युक्त शोभायमान शिला पर स्थापित है, ऐसी शोभायमान शिला पर पूर्णिमा के चन्द्रमा की कल्पना के समान शोभा को बढ़ाने वाला चन्द्रमा के समान ही है, इस प्रकार की वार्ता के सत्य को स्थापित करने के लिए मैं ‘श्री कार’ लिखता हूँ।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्रीकारलेखनं करोमि।
कनकाद्रि-निभं कम्रं पावनं पुण्य-कारणम्।
स्थापयामि परं पीठं जिनस्नपनाय भक्तितः।।
कनक - सोना
आद्रि - पर्वत
निभं - समान
कम्रं - शोभा वाला
पावनम् - पुनीत
पुण्य-कारणम् - पुण्य को बढ़ाने वाला
स्थापयामि - स्थापित करता हूँ
परं - सर्वोत्कृष्ट
पीठं - पीठ को
जिनस्नपनाय - जिनेन्द्र भगवान के स्नान अर्थात् अभिषेक के लिए
भक्तितः - भक्तिपूर्वक
मैं स्वर्ण के पर्वत के समान शोभा वाली पुनीत पुण्य को बढ़ाने वाली पीठ को सर्वोत्कृष्ट जिनेन्द्र भगवान के स्नान अर्थात् अभिषेक के लिए भक्तिपूर्वक स्थापित करता हूँ।
ऊँ ह्रीं पीठ (सिंहासन) स्थापनं करोमि।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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