अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (5)
अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (5)
(आचार्य माघनन्दीकृत)
श्रीतीर्थवकृत्स्नपन - वर्य - विधौ - सुरेन्द्रः,
क्षीराब्धि -वारिभि - रपूरय- दुद्घ- कुम्भान्।
याँस्तादृशानिव विभाव्य यथार्हणीयान्,
संस्थापये कुसुम - चन्दन - भूषिताग्रान्।।
श्रीतीर्थवकृत् - शोभायमान तीर्थ को चलाने वाले
स्नपन वर्य - स्नान की
विधौ - विधि
सुरेन्द्रः - देवताओं का इन्द्र अर्थात् सौधर्म इन्द्र
क्षीराब्धि - क्षीर सागर के
वारिभिः - जल के द्वारा
अपूरयत् - पूर्ण रूप से भरा हुआ है
उद्घ - समूह को
कुम्भान् - कलशों का
या: तादृशान् - वैसे
इव - ही
विभाव्य - मान कर
यथा - जैसे मुझ से हो सकता है
अर्हणीयान् - सम्मानपूर्वक
संस्थापये - स्थापना करता हूँ
कुसुम - पुष्प
चन्दन - चन्दन
भूषित - भूषित
अग्रान् - जिनके आगे
अर्थ - जो शोभायमान तीर्थ को चलाने वाले हैं, ऐसे तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान के स्नान की विधि देवताओं का इन्द्र अर्थात् सौधर्म इन्द्र के द्वारा क्षीर सागर के जल के द्वारा पूर्ण रूप से भरे हुए कलशों के समूह को भरा गया था, वैसे ही मान कर, जैसे मुझ से सम्मानपूर्वक हो सकता है, वैसे ही पुष्पों व चन्दन से भूषित कलशों की जिनेन्द्र भगवान के आगे स्थापना करता हूँ।
स्थापयामि जिनस्नान-चन्दनादि-सुचर्चितान्।।
शात कुम्भीय - स्वर्ण के बने हुए
कुम्भ औघान् - कलशों के समूह से
क्षीराब्धेः - क्षीर सागर के
तोय - जल से
पूरितान् - भरे हुए हैं
स्थापयामि - स्थापना करता हूँ
जिनस्नान - जिनेन्द्र भगवान के स्नान के लिए
चन्दन आदि - चन्दन आदि से
सुचर्चितान् - भली प्रकार पूजित हैं
मैं स्वर्ण के बने हुए कलशों के समूह को, जो क्षीर सागर के जल से भरे हुए हैं, चन्दन आदि से भली प्रकार पूजित हैं, उनकी जिनेन्द्र भगवान के स्नान के लिए स्थापना करता हूँ
ऊँ ह्रीं स्वस्तये चतुःकोणेषु चतुःकलशस्थापनं करोमि।
ऊँ - पंच परमेष्ठि का सूचक है, ह्रीं - अरिहंत भगवान का सूचक है। स्वस्तये - कल्याण के लिए, चतुःकोणेषु -चारों कोणों में, चतुःकलश - चार कलशों की, स्थापनं करोमि- स्थापना करता हूँ।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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