अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (6)
अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (6)
(आचार्य माघनन्दीकृत)
आनन्द-निर्भर-सुर-प्रमदादि-गानै-
र्वादित्र-पूर-जय-शब्द-कलप्रशस्तैः।
उद्गीय-मान-जगती-पति-कीर्ति-मेनाम्,
पीठस्थलीं वसु-विधार्चन-योल्लसामि।।
आनन्द - आनन्द से
निर्भर - पूर्ण रूप से भरे हुए
सुर - देव
प्रमदादि - देवों की स्त्रियाँ अर्थात् देवांगनाएं
गानैः- गान से
वादित्र - वाद्ययंत्र
पूर - परिपूर्ण
जय - जयजयकार
शब्द - शब्द
कल - गले की आवाज़ों से
प्रशस्तैः - प्रशस्त
उद्गीय मान - गाता हुआ
जगती पति -तीनों लोकों के स्वामी
कीर्तिम् -कीर्ति को
एनाम् - इस
पीठस्थलीं - पीठस्थली को
वसु - आठ
विध - प्रकार से
अर्चनयो - अर्चना करता हुआ
उल्लसामि - उल्लसित होता हूँ
आनन्द से पूर्ण रूप से भरे हुए देवांगनाओं के गान से, वाद्ययंत्रों से परिपूर्ण जयजयकार के शब्दों को गले की आवाज़ों से, मैं प्रशस्त रूप से तीनों लोकों के स्वामी की कीर्ति को गाता हुआ इस पीठस्थली की आठ प्रकार से अर्चना करता हुआ उल्लसित होता हूँ।
ऊँ ह्रीं स्नपनपीठ-स्थितजिनायार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मैं स्नपन पीठ पर विराजमान जिनेन्द्र भगवान के लिए अर्घ्य समर्पित करता हूँ।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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