अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (7)
अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (7)
(आचार्य माघनन्दीकृत)
कर्म-प्रबन्ध-निगडै-रपि हीनताप्तम्,
ज्ञात्वापि भक्ति-वशतः परमादि-देवम्।
त्वां स्वीय-कल्मष-गणोन्मथनाय देव।
शुद्धौदकै-रभिनयामि महाभिषेकम्।।
कर्म - कर्मों से
प्रबन्ध - बंधे हुए
निगडै - जंजीरों से
अपि - भी
हीनता - कमी को
आप्तम् - प्राप्त होता है
ज्ञात्वा - जानकर
अपि - भी
भक्ति - भक्ति के
वशतः - वशीभूत होकर
परम - श्रेष्ठ
आदि - आदिनाथ
देवम् - देव
त्वां - आपको
स्वीय - स्वयं के
कल्मष - पापों के
गण - समूह को
उन्मथनाय - क्षय करने के लिए
देव - हे जिनेन्द्र भगवान
शुद्ध - शुद्ध
उदकै- जल से
अभिनयामि - अभिनन्दन करता हुआ
महाभिषेकम् - महा अभिषेक करता हूँ
कर्मों रूपी से जंजीरों से बंधे हुए होने पर भी और हीनता को प्राप्त होता हुआ भी और जानता हुआ भी भक्ति के वशीभूत होकर श्रेष्ठ आदिनाथ देव की स्वयं के पापों के समूह को क्षय करने के लिए, हे जिनेन्द्र भगवान! मैं शुद्ध जल से अभिनन्दन करता हुआ आपका महा अभिषेक करता हूँ।
ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
विनम्र निवेदन
यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।
धन्यवाद
Comments
Post a Comment