परहित-सबसे बड़ा धर्म

परहित-सबसे बड़ा धर्म


एक बार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन भ्रमण के लिए कहीं निकले थे तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा मांगते देखा। अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राह्मण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राह्मण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर की ओर लौट चला, किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था। राह में एक लुटेरे ने उससे वह पोटली छीन ली। बेचारा वह ब्राह्मण दुःखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।

अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राह्मण पर पड़ी, तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा। ब्राह्मण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया। उसकी व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी। अर्जुन ने अपने मन में विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राह्मण को एक मूल्यवान एक माणिक दे दिया। ब्राह्मण उसे लेकर घर पंहुचा। उसके घर में एक पुराना घड़ा था, जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था।

ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया, किन्तु उसका दुर्भाग्य दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी। इस बीच ब्राह्मण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी, किन्तु मार्ग में ही उसका घड़ा टूट गया। उसने सोचा कि घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है, उसे ले आती हूँ। ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर चली गई और जैसे ही उसने घड़े को नदी में डुबोया, वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया। ब्राह्मण को जब यह बात पता चली, तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।

अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा, तो जाकर उसका कारण पूछा। सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बहुत हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे कि इस अभागे ब्राह्मण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता। उसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने कुछ विचार कर ब्राह्मण को दो पैसे दान में दिए। यह देख अर्जुन ने उनसे पूछा - “प्रभु! जब मेरी दी मुद्रायें और माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके, तो इन दो पैसों से इसका क्या होगा?

यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस ब्राह्मण के पीछे जाने को कहा। रास्ते में ब्राह्मण सोचता हुआ जा रहा था कि दो पैसों से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन भी नहीं आएगा, फ़िर भी प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया? प्रभु की यह कैसी लीला है?

ऐसा विचार करता हुआ वह चला ही जा रहा था कि उसकी दृष्टि एक मछुआरे पर पड़ी। उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक मछली फँसी है और वह छूटने के लिए तड़प रही है।

ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा इन दो पैसों से पेट की आग तो बुझेगी नहीं, तो क्यों न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जायें?

यह सोचकर उसने दो पैसों में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा। तभी मछली के मुख से कुछ निकला। उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा कि वह वही माणिक था, जो उसने घड़े में छुपाया था। ब्राह्मण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा - “मिल गया.... मिल गया..... ”।

तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था, जिसने ब्राह्मण की मुद्रायें लूटी थी। उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना - मिल गया... मिल गया...., तो लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोचा कि ब्राह्मण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है। अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा। इससे डर कर वह ब्राह्मण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा और उससे लूटी हुई सारी मुद्रायें भी उसे वापस कर दी। 

यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके। अर्जुन बोले - प्रभु! यह कैसी लीला है,,जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका, वह आपके दो पैसों ने कर दिखाया?

श्रीकृष्ण ने कहा - हे अर्जुन! यह अपनी सोच का अंतर है। जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया, तब उसने स्वार्थवश मात्र अपने सुख के विषय में ही सोचा; किन्तु जब मैंने उसको दो पैसे दिए, तब उसने दूसरे के दुःख को भी अनुभव किया। 

सत्य तो यह है कि जब आप दूसरों के दुःख के विषय में सोचते हैं और जब आप दूसरे किसी जीव का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं, क्योंकि परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है..!!

 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


विनम्र निवेदन

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