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Showing posts from April, 2024

सत्यमेव जयते

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सत्यमेव जयते यदि आप सत्य बोलते हैं, तो शत्रु भी आपका विश्वास करेगा तथा आपका हितैषी बन जाएगा। राजपूतों के किले पर पड़ोसी राजा ने हमला बोल दिया। उसका सैन्य बल बहुत ज्यादा था, अतः राजपूत की सेना का सेनापति रघुपति सिंह किले के गुप्त दरवाजे से भाग गया। आक्रामक राजा को मालूम हुआ कि किले से सेनापति रघुपति सिंह भाग गया है, तो उसने उसे पकड़ कर लाने के लिए बहुत बड़े ईनाम की घोषणा की। रघुपति सिंह एक गाँव में छिपकर रह रहा था। उसे पकड़ने के लिए सैनिकों ने घेराबंदी की। तभी सेनापति को पता चला कि उसका पुत्र मृत्यु शैया पर पड़ा है तथा उसे याद कर रहा है। रघुपति सिंह पुत्र के पास पहुंचने का दृढ़ निश्चय कर घेरा डालने वाले सरदार के पास जाकर बोला - आप मुझे पकड़ने आए हो न! मेरी एक प्रार्थना है। मेरा लड़का बहुत बीमार है। मुझे किले में जाकर उसे देख आने की इजाजत दे दीजिए। मैं वापस किले के बाहर आऊंगा, तब आप मुझे गिरफ्तार कर अपना ईनाम ले लीजिएगा। इस पर सरदार बोला - यदि आप किले से बाहर न आए, तो मेरी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी। रघुपति सिंह बोला - मैं सच्चा राजपूत हूँ। सच्चा राजपूत कभी झूठ नहीं बोलता। सरदार ने उसे जाने...

प्रतिज्ञा का फल

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प्रतिज्ञा का फल आचार्य शांति सागर महाराज फलटन की ओर जा रहे थे। रास्ते में एक मच्छीमार नदी में जाल डालने की तैयारी कर रहा था। आचार्य श्री को आता देखकर मच्छीमार हुक्का भरकर उनके सामने बढा़कर पीने का आग्रह करने लगा। आचार्य श्री ने कहा - हुक्का पीना बुरी चीज है। मैं उसे नहीं पीता हूँ। अभी तक जितने भी साधु मिले थे, वे सब तो बड़े आनंद से पीते थे, किंतु इस अनोखे साधु को देखकर मच्छीमार बहुत प्रभावित हुआ। उसने हाथ जोड़कर साधु से कुछ प्रतिज्ञा देने को कहा। आचार्य श्री ने उसे शराब छोड़ देने को कहा। उसने शराब छोड़ दी। अब उसके घर में कुछ पैसों की भी बचत होने लगी। कुछ वर्षों में उसके पास अच्छी रकम जमा हो गई। 3 वर्ष बाद उसे फिर महाराज के दर्शन हो गए। उसने आचार्य श्री के चरणों में गिर कर कहा कि महाराज! मैं तो सुखी हो गया और उनसे अपने यहां भोजन करने का आग्रह करने लगा। तब आचार्य ने कहा - तुम जब मच्छी-मांस खाना छोड़ दोगे, तब तुम्हारे यहां भोजन करेंगे। उसने ऐसा ही किया। अब उसका जीवन पलट चुका था। सुविचार - दुर्गुणों के त्याग से आत्मा के परिणामों में निर्मलता आती है। परिणामों की शुद्धि से समाधि उपलब्ध होती है। ...

अज्ञान - सर्वनाश की कगार

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अज्ञान - सर्वनाश की कगार अज्ञान, प्राणी का सबसे बड़ा दुश्मन है। अज्ञानी जीव की कहीं भी कोई पूछ नहीं होती। अज्ञान से जीव का कोई सुधार न होकर उसका बिगाड़ ही संभव है। अज्ञानी की कोई इज्जत नहीं होती। एक व्यक्ति महामूर्ख था। एक बार वह अपनी ससुराल गया। ससुराल में उसका खूब आदर-सत्कार किया गया। बड़ी उमंग से सास ने चूरमा के लड्डू खिलाए। दामाद को लड्डू बहुत पसंद आए। उसने सास से पूछा - इसका नाम क्या है? सास ने कहा - चूरमा के लड्डू। महामूर्ख सोचने लगा कि घर पहुंच कर चूरमा बनवाऊंगा और पेट भरकर खाऊंगा। वह मन ही मन चूरमा की रट लगाता हुआ अपने घर की ओर लौट पड़ा। वह जानता था कि वह रटेगा नहीं, तो सब भूल जाएगा। रास्ते में एक छोटा-सा नाला पड़ा। उसे पार किए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता था। उसने नाला पार करने की तरकीब सोची और पार भी कर लिया लेकिन इस बीच चूरमा शब्द भूल गया और उसके बदले ‘वाह! क्या पार किया’ शब्द जबान पर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद उसने घर पहुंच कर पत्नी से कहा - सुनो! जल्दी करो। मेरे लिए ‘वाह! क्या पार किया’ बना दो। मुझे तो वही खाना है। मेरी सास अर्थात् तुम्हारी माँ ने बहुत मीठे ‘वाह! क्या पार किया’ बनाए ...

सच्चा दान

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सच्चा दान श्री शिखर जी में पंचकल्याणक की प्रतिष्ठा के समय कलश चढ़ाने की बोली हुई। कलश की बोली ऊँची जा रही थी। 51 हजार रुपये की बोली एक प्रसिद्ध उद्योगपति की थी। जनता की धारणा थी की इतनी ऊँची बोली और न जा सकेगी। तीन कहने से पहले एक ओर से 55000 की आवाज़ आई। लोगों का ध्यान उस ओर गया। एक साधारण समर्थ गृहस्थ ने बोली लगाई जो एक लाख तक पहुंच गई। किंतु दोनों एक दूसरे से बढ़ते चले जा रहे थे। अंत में बोली एक लाख ग्यारह हज़ार में प्रसिद्ध उद्योगपति की रही। उद्योगपति ने बहुत स्नेह व सौजन्य से उस व्यक्ति से भी भेंट करना चाहा, जिसने एक लाख दस हज़ार तक बोली बोली थी। दोनों उदार मना स्नेह से एक दूसरे के गले मिले। उस गृहस्थ ने उद्योगपति की धर्म भक्ति की बहुत सराहना की और कहा कि वह ही कलश चढ़ाने के उपयुक्त पात्र हैं। साथ ही उसने कहा कि मैंने एक लाख दस हज़ार तक बोली बोली थी तो शायद किसी को भ्रम हो कि मैंने केवल बोली बढ़ाने की इच्छा से बोला तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि जितनी रकम बोली में मैंने देना स्वीकार किया था, मेरी दृष्टि में उतनी रकम निर्माल्य हो गई। अतः मेरी बोली का एक लाख दस हज़ार रुपए का चेक मैं मंदिर जी के ऑफि...

यक्ष द्वारा रामपुरी की रचना

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यक्ष द्वारा रामपुरी की रचना वर्षा ऋतु का आगमन हो चुका था। वर्षा हो रही थी। राम, सीता और लक्ष्मण प्रवासीत्रय वर्षा से बचने के लिए विशाल वट वृक्ष के नीचे आकर ठहरे। उन्होंने इस वृक्ष को उपयुक्त समझकर भाई से कहा - बंधु! अब वर्षाकाल इस वृक्ष के नीचे ही व्यतीत करना ठीक रहेगा। लक्ष्मण और सीता जी भी सहमत हो गए। उस वृक्ष पर ‘इभकर्ण’ नाम का यक्ष रहता था। यक्ष ने बात सुनी और उनकी भव्य आकृति देखी तो भयभीत हो गया। वह अपने स्वामी ‘गोकर्ण’ यक्ष के पास गया और विनयपूर्वक बोला - स्वामिन्! मैं विपत्ति में पड़ गया हूँ। दो अप्रतिम तेजस्वी पुरुष और एक महिला मेरे आवास पर आए हैं। वे पूरा वर्षा काल वहीं बिताना चाहते हैं। इससे मैं चिंतित हूँ। अब आप ही मेरी समस्या का हल करें। गोकर्ण ने इभकर्ण की बात सुनकर अवधि ज्ञान से आगत प्रवासियों का परिचय जाना और प्रसन्नतापूर्वक बोले - भद्र! तुम भाग्यशाली हो। तुम्हारे यहाँ आने वाले महापुरुष हैं। उनमें एक आठवें बलभद्र और दूसरे वासुदेव हैं और अशुभोदय से प्रवासी दशा में हैं। ये सत्कार करने योग्य हैं। चलो! मैं भी चलता हूँ। गोकर्ण यक्ष इभकर्ण के साथ वहाँ आया और वैक्रियक शक्ति से...

एक महात्मा

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एक महात्मा एक महात्मा था। वह बहुत बड़ा बैरागी व मस्त था। उसके पास एक दिन एक भक्त आया और बोला - महाराज! धन्य है आज की बेला और धन्य है आज का स्वर्णिम दिन जो आप जैसे त्यागी संतों के दर्शन हुए। महाराज! आपका जीवन तो बहुत शांत एवं सुखी प्रतीत हो रहा है। किसी भी तरह की आपको चिंता नहीं है, परंतु मेरा जीवन सदा अशांति से आच्छादित रहता है। रात-दिन एक न एक चिंता सताती रहती है। सुख की नींद भी नहीं ले सकता। आपके और मेरे जीवन में इतना अंतर क्यों? महाराज ने कहा - भक्त! इन प्रश्नों का उत्तर अभी नहीं मिलेगा, पर एक बात सुन। तेरी मृत्यु आज से आठवें दिन होने वाली है। इसलिए अभी से उसकी चिंता कर। महात्मा की बात सुनते ही भक्त घबराया और दौड़ा-दौड़ा अपने घर आया। उसने सोचा अब तो आठवें दिन मरना पड़ेगा। इस दृष्टि से उसने अपने परिवार वालों से व पड़ोसियों से क्षमा याचना कर ली। सांसारिक मोह से विरक्त हुआ, घर के कार्यों से निवृत्त बनकर जीवन का सारा समय धर्म ध्यान में व्यतीत करने लगा। जब 8 दिन पूरे हो गए, तो महाराज उसके घर पर गए। भक्त - महाराज! अब मेरी मृत्यु में कितना समय अवशिष्ट है? महात्मा - भक्त! मौत कब आएगी यह तो केवल ...

रावण अभिमानी

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रावण अभिमानी श्री रामचंद्र जी को पता लगा कि सीता रावण के घर पर है, तो वे सुग्रीव से बोले - चलो! सीता को लिवा लावें। सुग्रीव ने कहा - प्रभु! रावण कोई साधारण आदमी नहीं है। उससे भिड़ना आग में हाथ डालना है। श्री रामचंद्र जी ने कहा - कोई बात नहीं। सीता को आपत्ति में पड़ी देखकर हम चुप भी नहीं बैठ सकते। यह कभी भी संभव नहीं है। हमें अपना कर्तव्य अवश्य पालन करना चाहिए। होगा तो वही, जो प्रकृति को मंजूर है। श्री रामचंद्र जी की सहज सरलता के द्वारा सभी तरह का वातावरण उनके अनुकूल होता चला गया। यद्यपि उनके विपक्ष में रावण बहुत बलवान और शक्तिशाली था, परंतु वह समझता था कि मुझे किसी की क्या परवाह है! मैं अपने भुजबल और बुद्धि से जैसा चाहूँ, वैसा कर सकता हूँ। बस रावण के इस घमंड की वजह से उसकी स्वयं की ही ताकत उसका नाश करने वाली बन गई। अतः अभिमान करना बड़ा दुर्गुण है। सुविचार - यदि अपराधी पर क्रोध आता है, तो तुम्हारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि तुमने अपने क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं किया कि वह आया ही क्यों? तुम्हारा किया गया क्रोध तुम्हारे अब तक किए गए चारों पुरुषार्थों को नष्ट कर देगा। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ...

बैंक में संपत्ति

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बैंक में संपत्ति सेठ बुलाकी राम करोड़पति सेठ था। घर में किसी प्रकार की कमी नहीं थी। वह हर दृष्टि से संपन्न था। सेठ जी ने अपने पुत्र का नाम रखा अमीरचंद। कुछ दिनों पश्चात मोटर दुर्घटना में माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। अमीरचंद घर में अकेला रह गया। नाम से वह अमीरचंद अवश्य था किंतु खर्च करने में बहुत कंजूस था। उसकी कंजूसी को देखकर साथियों ने उसका नाम कंजूसचंद रख दिया। जो भी आय होती, वह उसे बैंक में जमा करता जाता। समय-समय पर साथी उससे कहते रहते - मित्र! धन क्या साथ जाएगा? इतनी कंजूसी करना उचित नहीं है। वह कहता कि यह मेरी घरेलू बात है। किसी को भी हस्तक्षेप करने की अपेक्षा नहीं है। तुम लोगों की तरह मैं फालतू खर्च करने वाला नहीं हूँ और अधिक खर्च करना भी मुझे पसंद नहीं है। लोभी व्यक्ति का धन स्वयं के उपभोग में नहीं आता है, अपितु अन्य के ही उपयोग में आता है। अमरचंद के नौकर-चाकर भी परेशान होकर बोले - बाबूजी! खान-पान में इतनी कंजूसी बरतना बुद्धिमता नहीं है। लेकिन वह किसकी मानने वाला था? धीरे-धीरे सारे नौकर बाबूजी से विदा हो गए। उसके सामने खाना बनाने की नई समस्या उत्पन्न हो गई। भूख लगी तो बाबूजी हो...

परिषह सहने से ही कर्म कटते हैं

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परिषह सहने से ही कर्म कटते हैं एक साधु अपने शिष्यों को विद्या अध्ययन करा रहा था। एक दुष्ट अज्ञानी आया और उसने साधु पर थूक दिया। साधु के शिष्यगण, जो विद्या अध्ययन कर रहे थे, उस दुष्ट मनुष्य को मारने के लिए दौड़े। यह देखकर साधु की आँखों में आंसू आ गए। साधु सिसक-सिसक कर रोने लगा। शिष्यगण कहने लगे कि हम नगर के सम्राट से कहकर उस व्यक्ति को अवश्य ही कठोर दंड दिलवाएंगे। साधु ने कहा - मैं उसके थूकने के कारण दुःखी नहीं हुआ, तुम्हारे इस गलत आचरण से दुःखित हुआ। इस व्यक्ति ने जब थूका, तो मैंने सोचा कि मेरे पूर्व के किए हुए पाप का ऋण चुक गया, चलो! निपटारा हुआ और भार उतर गया। इसी प्रतीक्षा में मैं साधु बन कर रह रहा था, परंतु तुमने सब बेकार कर दिया, क्योंकि किए हुए कर्म भोगे बिना नहीं छूटते हैं। तुम्हें एक सच्ची घटना बताता हूँ। एक बार जब एक दिगंबर संत विहार कर रहे थे, उनके पास एक अज्ञानी मुसलमान वृद्ध आया और बोला कि तुझे शर्म नहीं आती। तू बहू-बेटियों के बीच नंगा होकर घूम रहा है। संत ने समझाया कि नंगा वह है जिसके मन में विकार हैं। कपड़ों के पहनने पर भी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं है। जैन संत बालक के समान ...